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टीका ग्रन्थों से न्यायविनिश्चय और सिद्धिविनिश्चय जैसे ग्रन्थों को खोजकर उनका स्वयं सम्पादन किया और उनकी गवेषणापूर्ण भूमिकाएँ लिखीं। लघीयस्त्रयादिसंग्रह के रूप में समवेतरूप से अकलंक के तीन ग्रन्थों का भी सम्पादन किया और विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखी। हम समझते हैं उनके बाद वैसे सम्पादन का दिगम्बर परम्परा में बिल्कुल ही अभाव सा हो गया। हम यह भी कह सकते हैं कि उनके बाद संस्कृत में लिखे गये अकलंक के ग्रन्थों का अर्थ न समझने वाले विद्वानों के लिए स्व० डॉ० जैन की कृतियाँ एवं विभिन्न ग्रन्थों में लिखी गयी भूमिकाएँ अकलंक, जैनन्याय एवं दर्शन का हार्द समझने के लिये पर्याप्त हैं। प्रथम अध्याय के प्रस्तुत इस द्वितीय परिच्छेद में अकलंक के ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय स्व० डॉ० जैन के अध्ययन के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें हमने यहाँ कोशिश की है कि उन कृतियों का वास्तविक परिमाण एवं कृतित्व का प्रमाण और अन्तरंग परिचय संक्षिप्त रूप में सामने आ जाये। इस अध्ययन में हमने देखा कि उनकी उपलब्ध कृतियाँ मात्र छह ही प्राप्त होती हैं, जिनका नामकरण अकलंक के परवर्ती आचार्यों द्वारा किया गया जान पड़ता है, क्योंकि उन ग्रंथों का नाम अकलंक का दिया हुआ है, ऐसी सूचना उनके ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होती।
उनकी सम्पूर्ण कृतियाँ भाष्य और स्वतंत्र इन दो रूपों में प्राप्त होती हैं। उनकी कुछ स्वतंत्र कृतियाँ ऐसी हैं, जिन पर उन्होंने स्वयं वृत्ति या भाष्य लिखा है । उनकी उपलब्ध प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं
१. तत्त्वार्थवार्तिक (वार्तिक एवं उस पर भाष्य) २. अष्टशती (आप्तमीमांसालंकार, भाष्य) ३. लघीयस्त्रय (सवृत्ति) ४. न्यायविनिश्चय (सवृत्ति) ५. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति) ६. प्रमाणसंग्रह
इन कृतियों के अतिरिक्त स्वरूपसंबोधन आदि और भी कृतियाँ हैं, जो उपलब्ध तो हैं परन्तु विवादग्रस्त मानी जाती हैं। अनुपलब्ध एवं विवादग्रस्त कृतियाँ बृहत्त्रय और न्यायचूलिका मानी जाती हैं । प्रस्तुत परिच्छेद में उपर्युक्त सभी कृतियों का अन्तरंग एवं बहिरंग परिचय संक्षेप में दिया गया है।
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