Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 89
________________ ( ८९ ) नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नयों की मीमांसा अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुत की गयी है । “पर्यायार्थिक नय' नामक परिच्छेद तृतीय में पर्यायार्थिक नय की परिभाषा, उसके भेद, शब्दादि नयों को पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत रखने के कारण शब्दादि नयों का स्वरूप आदि के प्रतिपादनपूर्वक इस अध्याय के अन्त में नयाभासों का भी विवेचन किया गया है। प्रव वन अथवा आगम : "प्रमाणमीमांसा" नामक अष्टम अध्याय को दो परिच्छेदों मे विभक्त किया गया है। प्रथम परिच्छेद में प्रवचन का स्वरूप, उसकी प्रमाणता का आधार, विषयवस्तु, अधिगम के उपाय प्रमाण, नय, निक्षेप, श्रुत के उपयोग, प्रवचन का प्रयोजन एवं फल आदि के बारे में लिखा गया है । मुख्य और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मति, श्रुत आदि के प्रत्यक्ष और परोक्षत्व आदि से सम्बन्धित अकलंक की कुछ ऐसी व्यवस्था थी, जिसके कारण प्रतीत होता है कि अकलंक को स्वतंत्र रूप में प्रवचनप्रवेश लिखना पड़ा। जिसमें उन्होंने परम्परा से प्राप्त चिन्तन को विवेचित किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि सर्वज्ञ, सिद्ध, परमात्मा का अनुशासन ही प्रवचन है । आप्त की वापी प्रवचन है । इस दृष्टि से प्रवचन या आगम की प्रमाणता का मुख्य आधार आप्त के गुण सिद्ध होते हैं। प्रवचन की यह परम्परा अनादिकालीन है और उसका विषय जीव-अजीवादि के अनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादन है, जिसका प्रतिपादन स्यादवादपद्धति से किया जाता है। उनके अधिगम के लिए प्रमाण, नय, निक्षेप आदि साधन के रूप में माने गये हैं। इन सभी का उक्त अध्याय के प्रथम परिच्छेद में प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में श्रत के स्याद्वाद और नय के रूप में दो उपयोगों की चर्चा के साथ अत्यन्त आवश्यक होने के कारण अनेकान्तवाद का भी प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् लघी यस्त्रय के प्रवचनप्रवेश के आधार पर स्याद्वाद, नय, श्रत, नय के भेद, निक्षेप का स्वरूप भेद एवं उसका प्रयोजन प्रवचन का फल एवं प्रवचन शास्त्र अभ्यास की विधि आदि का विवेचन किया गया है। निःसन्देह जैन न्याय और दर्शन की पर्याय के रूप में अकलंक को यदि माना जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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