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( ८७ ) परिभाषाओं की समीक्षा करके परिच्छेद तृतीय में प्रमाण के भेदों का भी विवेचन किया गया है।
"प्रत्यक्ष प्रमाण' नामक चतुर्थ अध्याय में मुख्य-प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप ये दो परिच्छेद रखे गये हैं। इसमें सर्वप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप की विशदता का समालोचनात्मक दृष्टि से आकलन करते हुए उनके भेदों की चर्चा की गयी है। तत्पश्चात् मुख्य प्रत्यक्ष का स्वरूप एवं अतीन्द्रिय ज्ञान----केवलज्ञान के प्रतिपादनपूर्वक विभिन्न उक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि सुनिश्चित रूप से सर्वज्ञ के अस्तित्व में बाधक प्रमाणों का अभाव होने से वह स्वयं ही सिद्ध है। "मुख्य प्रत्यक्ष' नामक इस परिच्छेद में उपर्युक्त चर्चा के साथ अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानों के संक्षिप्त स्वरूप का भी प्रतिपादन किया गया है।
___ "सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष'' नामक इस अध्याय के द्वितीय परिच्छेद में इसके स्वरूप और अवान्तर भेदों की चर्चा की गयी है। इसमें यह बताया गया है कि परम्परा से परोक्ष के रूप में स्वीकृत मतिज्ञान में किस प्रकार शब्दयोजना से पहले प्रत्यक्षत्व है। इसकी एवं इसके भेदों की सांव्यवाहारिक के भेद-इन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तर्गत समीक्षा की गयी है। ___ “परोक्ष प्रमाण की परिभाषा एवं भेद'' नामक पंचम अध्याय के प्रथम परिच्छेद में ऐतिहासिक विवेचनपूर्वक यह दिखाया गया है कि शब्दयोजना होने पर स्मृति, संज्ञा, चिन्ता आदि परोक्ष क्यों हो जाते हैं । तत्पचात् द्वितीय परिच्छेद में स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान
और आगम इन परोक्ष के पाँच भेदों की विस्तृत समीक्षा की गयी है, जिसमें इनके स्वरूप एवं अवान्तर भेदों के निरूपण के साथ दर्शनान्तरीय मतों की तुलनात्मक समीक्षा की गयी है। इसमें इन प्रमाणों के मानने का आधार इनका स्वातंत्र्य आदि विषयों पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है। अनुमान (प्रत्यभिज्ञान) प्रमाण के अन्तर्गत उसका स्वरूप, व्याप्ति का स्वरूप, एकलक्षण का स्वरूप, हेतु का स्वरूप एवं उसके भेदादि का तुलनात्मक दृष्टि से विमर्श उपस्थित किया गया है। तत्पश्चात् अंत में आगम-श्रुत प्रमाण की चर्चा की गयी है । दर्शना
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