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( ८६ ) मेरा शोध का विषय “भट्टाकलंककृतलघीयस्त्रय : एक दार्शनिक विवेचन' होने के कारण परिच्छेद तृतीय में लघीयस्त्रय का विशेष परिचय दिया गया है। इसमें इसके वास्तविक परिमाण निर्धारित करने के साथ "लघीयस्त्रय' के रूप में ग्रंथ के नाम पर विशेष ऊहापोहपूर्वक विचार किया गया है। अन्तरंग विषय-वस्तु के परिचय के अन्तर्गत प्रवेश और परिच्छेद के क्रम से प्रमाण, नय और प्रवचन के सम्बन्ध में उनके विचारों को रखा गया है। ___ "प्रमाणमीमांसा की आगमिक परम्परा ज्ञानमीमांसा' नामक द्वितीय अध्याय के परिच्छेद प्रथम में तीर्थंकरों से लेकर अकलंक तक प्रमाण के आगमिक रूप, ज्ञान की चर्चा की गयी है। इसमें हम पाते हैं कि किस प्रकार प्रमाण के अभाव में ज्ञान से उसका कार्य किया जाता था। वस्तुतः परम्परागत सम्यक् और मिथ्या के रूप में ज्ञान का वर्गीकरण एक तरह से प्रमाण और प्रमाणाभास के पूर्वरूप की सूचना देता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में, परम्परा से चले आये ज्ञान के इन दो भेदों को आधार मानकर ज्ञानों का किस प्रकार प्रमाणों में वर्गीकरण हुआ, इसका वर्णन प्रस्तुत अध्याय के द्वितीय परिच्छेद में किया गया है। इसमें बताया गया है कि परम्परागत प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञानों के आधार पर बाद के दार्शनिकों द्वारा उन्हें स्पष्ट रूप में प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया । आत्मसापेक्ष प्रत्यक्ष और इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय सापेक्ष परोक्ष के रूप में विभाजित उस ज्ञान गंगा की धारारूपी परम्परा कुन्दकुन्द तक अनवरत रूप से प्रवाहित होती रही, परन्तु ज्ञान को प्रमाण-रूप में स्वीकृति देने वाले उमास्वामी और उनके बाद के आचार्यों द्वारा अनिन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को आत्मसापेक्ष ज्ञान के साथ संयुक्त कर लिया गया, बाद में यह प्रमाणों के वर्गीकरण का मुख्य आधार बन गया।
तत्पश्चात् प्रमाण की अनेक परिभाषाएँ दी गयीं और अकलंक ने ज्ञान को प्रमाण मानकर और उसमें अनधिगतार्थ, अविसंवादी और व्यवसायात्मक जैसे पदों का समावेश कर प्रमाण की एक अकाटर परिभाषा दी । "प्रमाणमीमांसा" नामक प्रस्तुत तृतीय अध्याय के परि.. च्छेद प्रथम में इसका ऐतिहासिक सन्दर्भ में मूल्यांकन किया गया है . इसी अध्याय बा द्वितीय परिच्छेद में दर्शनान्तर सम्मत प्रमुख प्रमाए
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