Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 1
________________ जैन परम्परा का ऐतिहासिक विश्लेषण --प्रो० सागरमल जैन श्रमण परम्पराः जैन धर्म एक जीवित धर्म है और कोई भी जीवित धर्म देश और कालगत परिवर्तनों से अछूता नहीं रहता है। जब भी हम किसी धर्म के इतिहास की बात करते हैं तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम किसी स्थिर धर्म की बात नहीं करते हैं क्योंकि स्थिर धर्म का कोई इतिहास ही नहीं होता है। इतिहास तो उसी का होता हैं जो गतिशील है, परिवर्तनशील है। जो लोग यह मानते है कि जैन धर्म अपने आदिकाल से आज तक यथास्थिति में रहा है, वे बहुत बड़ी भ्रान्ति में हैं। जैन धर्म के इतिहास की इस चर्चा के प्रसंग में मैं उन परम्पराओं की और उन परिस्थितियों की चर्चा भी करना चाहूँगा, जिसमें अपने सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान तक जैन धर्म ने अपनी करवटें बदली हैं और जिनमें उसका उद्भव और विकास हुआ है। __हमें इस सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट रहना चाहिए कि आज के जैन आचार-विचार या जैन-जीवन शैली ठीक वही नहीं है जो आज से पाँच सौ, हजार या दो हजार वर्ष पूर्व में थी। मात्र यही नहीं महावीर की आचार-मर्यादाएँ भी ठीक वैसी ही नहीं थीं जैसी पार्श्व की। पुनः पार्श्व की आचार-मर्यादाएँ ऋषभ आदि से भिन्न थीं-इस सत्य को प्राचीन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में भी स्वीकार किया गया है । पुनः महावीर ने स्वयं भी अपनी स्वनिर्धारित आचार-मर्यादाओं में परिस्थितियों और अन्तरात्मा के आधार पर परिवर्तित किया है। श्रमण-धारा के पूर्वज वैदिक-व्रात्यों और आरण्यककाल के ऋषियों की जीवन-शैली भी ठीक वही नहीं थी, जो पार्व, महावीर, बुद्ध और गोशालक के श्रमणों की रही है। फिर भी यह मानना होगा कि महावीर और पार्श्व की श्रमण-परम्परा की पूर्वज यही व्रात्य परम्परा रही है। यद्यपि व्रात्य और जैन परम्पराओं के आचार-विचार में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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