Book Title: Sramana 1990 07 Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 3
________________ ( ३ ) प्राचीनकाल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का ही सूचक है। ___लगभग ई० पू० सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग था, जब जन-समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग-साधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग-विशेष से बँधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ परम्परा का उद्भव हुआ, जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पापित्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञातपूत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे । सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्यपुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा। पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निग्रंथ के नाम से जानी जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता है । जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया है । अशोक (ई० पू० तृतीय शताब्दी), खारवेल ( ई०पू० द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैन धर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावोर की परम्परा : ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्ग्रन्थ धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण ( तारायण ), अंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी जो कि वस्तुतः उनकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्य सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था, किन्तु जब निग्रंथ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येकबुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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