Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 4
________________ ( ४ ) कि ई० पू० पाँचवीं या चौथी शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया । यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारम्भ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं । यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवनकाल में उनकी और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णतः एकीकृत नहीं हो सकीं । उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पाश्र्वापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी । यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन हो गयी थी । फिर भी इतना निश्चित है कि पाश्र्वापत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था । पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है । कालान्तर में ऋषभ, नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्राक्ऐतिहासिककाल के महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया । आज ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास मार्ग के प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे । ऋषभ, अजित, अर, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य तीर्थकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णतः मौन हैं और इनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और अन्य कथा ग्रन्थ ही हैं । महावीर और आजीवक परम्परा : जैन धर्म के इस पूर्व इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा देने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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