Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 2
________________ पर्याप्त अन्तर रहा है, किन्तु यह नितान्त सत्य है कि यह जैन परम्परा इसी से विकसित हुई। भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में वातरशना मुनियों और व्रात्यों के जो उल्लेख उपलब्ध हुए हैं तथा मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से ध्यानरत योगियों की जो सीलें उपलब्ध हुई हैं उनसे इतना तो निःसन्देह सिद्ध है कि अतिप्राचीन काल में भी निवृत्तिमार्गी योग-साधनापरायण ऋषियों का अस्तित्व था। वस्तुतः प्रकृति ही ऐसी है कि उसमें वासना और विवेक के तत्त्व एक साथ उपस्थित वासनामूलक प्रवृत्ति प्रवर्तक धर्म को जन्म देती है तो विवेकमूलक प्रवृत्ति निवृत्ति धर्म का कारण होती है। यद्यपि विवेक में वासना और संयम में सन्तुलन बनाने का प्रयास भी किया गया है किन्तु यह एक परवर्ती घटना है। व्यावहारिक रूप में यह समन्वय भी भारत के जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों ही परम्पराओं में पाया जाता है, फिर भी जहाँ जैन धर्म में निवृत्ति की प्रधानता रही, वहीं हिन्दू धर्म में प्रवृत्ति की प्रधानता रही। बौद्धों ने भोग और त्याग में या निवृत्ति और प्रवृत्ति में एक साथ सन्तुलन बनाने का प्रयास अवश्य किया था जिसका कुछ प्रभाव परवर्तीकाल के जैन धर्म आचार व्यवस्था पर आया है। श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धाराएँ ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं, जो आज बृहद् हिन्दू धर्म का ही अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धारायें भी थीं, जो विलुप्त हो चुकी हैं। पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति : सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिक धारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है । यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवनमूल्यों का संघर्ष था। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो श्रमणधारा का उद्भव मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन काही प्रयत्न था, जिसमें श्रमणब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और सूतकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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