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इस प्रकार जेम्स जैनों की यह युक्ति 'अनन्तधर्मकम् वस्तु' को चरितार्थ करते हैं । वे इसमें तनिक भी संदेह नहीं करते कि एक ही वस्तु कैसे विभिन्न 'धर्मों' से युक्त हो सकती है। वे जैनों की तरह अपनी अनेकतत्त्व - वस्तुवादी (रीयलिस्ट प्लुरिज्म) धारणा के अनुसार उसे अनुभवपरक मानते हैं ।
पुनः जैन- दार्शनिकों के स्याद्वादी धारणा के अनुकूल जेम्स यह स्वीकार करते हैं कि एक ही सत्ता के सम्बन्ध में अनेक विचार हो सकते हैं, यद्यपि ये विचार दूसरे से भिन्न और विरोधी दीख पड़ते हैं । इस दृष्टि से दत्त विषय एक ऐसी सदिग्ध और अस्पष्ट पूर्ण वस्तु होती है जिसे हम अपनी रुचि, परियोजन और इच्छा के अनुकूल अनेकों रूपों में व्यक्त कर सकते हैं । अतः जेम्स के अनुसार सत् पहले भी से रचित नहीं होता, बल्कि उसका सृजन स्वयं व्यक्ति अपनी इच्छानुसार करता है जो उसके दृष्टिभेद पर निर्भर करता है । "
व्यावहारिकतावादी डियूई भी यह स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति की इन्द्रियानुभूति में जो वस्तु प्रत्यक्ष दीख पड़ती है अर्थात् जितने सारे दत्त-विषय हैं, उन्हें सत् की संज्ञा दी जा सकती है । ऐसे सत् के गुण उसके वास्तविक रूप आदि हमारी इन्द्रियानुभूति में तत्क्षण दीख पड़ते हैं जब हम उनके सम्पर्क में आते हैं । जैन-चिंतकों के समान डि-यूई यह मानते हैं कि सत् अनेक विशेषताओं या धर्मों की भू-समष्टि है, जो प्रायः परिवर्तनशील होता है । "
डि.यूई जैनों के सत् सम्बन्धी त्रिलक्षण ( उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ) से सहमत हैं । इस दृष्टि से डि-यूई उसे घटना (इवेंट्स) के नाम से पुकारते हैं, जो परम्परावादी द्रव्य की कल्पना से भिन्न नहीं कही जा सकती है | अतः कोई भी वस्तु या तो साधारण टेबुल, कुर्सी, पुस्तक या ऐसे कोई भी स्थूल पदार्थ हो, छोटे या विराट् रूप में सभी
१. दत्त डी० एम० 'चीफ करेन्ट्स आफ कन्टेम्पोररी फिलासफी', कलकत्ता यूनिवर्सिटी प्रेस, १९६१, पृष्ठ २२५
जान डि-यूई 'एक्सपेरिएन्स एण्ड नेचर', (ओपेनकोर्ट, शिकांगो, १९२९ ) पृष्ठ ३१८
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