Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 38
________________ ( ३८ ) (१) मित्रा दृष्टि -- यह योग की प्रथम दृष्टि है । इस दृष्टि में साधक समस्त जगत् को मित्र भाव से देखता है । (२) तारा-दृष्टि - तारा-दृष्टि में बोध मित्रा दृष्टि की अपेक्षा कुछ स्पष्ट होता है । (३) बला- दृष्टि - बला दृष्टि आ जाने पर साधक के जीवन में उतावलापन कम हो जाता है, और स्थिरता बढ़ जाती है । (४) दोप्रा - दृष्टि - इस दृष्टि में साधक का मन इतना पवित्र होता है कि वह धर्म को प्राणों से भी बढ़ कर मानता है । (५) स्थिरा - दृष्टि - इसमें सम्यक् दर्शन से पतन नहीं होता है । इसमें साधक जो भी क्रिया-कलाप करता है वह भ्रांतिरहित, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोध युक्त होता है । (६) कान्ता -दृष्टि - इस दृष्टि में योगो धर्म को साधना तथा आचार्य की सम्यक् विशुद्धि के कारण सभी प्राणियों का प्रिय होता है । (७) प्रभा - दृष्टि - प्रभा दृष्टि प्रायः ध्यान प्रिय है । राग, द्वेष, मोहरूपी, त्रिदोषजन्यरोग यहां बाधा नहीं देते । (८) परा-दृष्टि- परा दृष्टि समाधिनिष्ठ होती है । इसमें चित्त सध जाता है, चित्त में किसी प्रकार की प्रवृत्ति की इच्छा, कामना या वासना नहीं रहती है । द्वितीय विभाग में 'योग' को तीन भागों में बाँटा गया है (१) इच्छा योग - धर्म साधना में इच्छा रखने वाले साधक में जो विकल धर्म योग है, उसे इच्छायोग कहा गया है । (२) शास्त्रयोग - यथा शक्ति, प्रमादरहित, बोधयुक्त पुरुष की शास्त्र के (आगम ) के प्रति निष्ठा को शास्त्र योग कहा जाता है ! (३) सामर्थ्य योग - जो शास्त्र मर्यादा से भी ऊपर उठा हुआ हो उसे सामर्थ्य योग कहा गया है । तृतीय विभाग में योगी को चार भागों में बाँटा गया है— (१) गोत्र योगी -- ऐसे योगियों में सुपात्रता नहीं होती । साधन सहज ही प्राप्त होने पर भी वह यम-नियम का पालन नहीं करता, उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है । अतः ऐसा मनुष्य योग साधना का अधिकारी नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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