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( ४४ ) १. अपुनर्बन्धक, २. सम्यग्दृष्टि, ३. देशविरति, ४. सर्वविरति ।
छठवें अध्याय में योग और साधना के अन्तर्गत श्रावकाचार विषयक नियमों का उल्लेख किया गया है, जिसमें अणुव्रत, रात्रिभोजन गुणवत, शिक्षावत, प्रतिमाएं एवं सत्कर्मों का निरूपण किया गया है ।
सातवें अध्याय में हरिभद्र द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक विकास का विवेचन है।
अन्तिम अध्याय में आचार्य हरिभद्र का योग के क्षेत्र में क्या अवदान रहा है यह बताने का प्रयास किया गया है। हरिभद्र को जैनागमिक साहित्य उत्तराधिकार में प्राप्त था, यह बात तो उनके लिखे योग ग्रन्थों से स्पष्ट हो जाती है किन्तु वे आगमिक विवेचनाओं तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने अपनी कृतियों में अपनी परम्परा को पातंजल और बौद्ध परम्परा की योग सम्बन्धी अवधारणाओं को लेकर अभिनव दृष्टि का कडुआ चूंट पिलाकर सबल और सचेतन बनाया तथा अपूर्ण अभ्यास को लेकर भिन्न-भिन्न पंथों और सम्प्रदायों के बीच जो संकीर्णता थी, उसे यथाशक्ति दूर करने का प्रयास किया। आचार्य ने देखा कि सच्चा साधक चाहे जिस परम्परा का हो उसका आध्यात्मिक विकास तो एक ही क्रम से होता है, अतः भले ही उसका निरूपण भिन्न भिन्न परिभाषाओं में हो, परन्तु उस निरूपण की आत्मा तो एक ही है। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि मैं ऐसे ग्रन्थ को लिखु जो सुलभ और सभी योग शास्त्रों के दोहन-रूप हों और जिसमें किसी एक ही सम्प्रदाय में रूढ़ परिभाषा या शैली का आश्रय न लेकर नयी परिभाषा और नयी शैली की इस प्रकार आलोचना की जाय जिससे कि सभी योग परम्पराओं के योग विषयक मन्तव्य किस तरह एक हैं अथवा एक-दूसरे के निकट हैं, यह बतलाया जा सके । अपनी योग सम्बन्धी विवेचनाओं में जहाँ हरिभद्र जैन आगमों तथा पातंजल एवं बौद्ध योग परम्पराओं से प्रभावित रहे हैं, वहीं उन्होंने अपनी समन्वयात्मक दृष्टि द्वारा उन्हीं आधारों पर कुछ नयी परिभाषाओं की उद्भावना भी की है। . उपसंहार के अन्तर्गत पूर्ववर्णित समस्त अध्यायों का जार प्रस्तुत किया गया है।
शोध छात्र पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
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