Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 84
________________ ( ८४ ) अकलंक का व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना महान् था कि लोग उनके नाम को जिन का पर्याय समझने लगे थे। निःसन्देह इनकी कृतियों, शिलालेखों, ग्रन्थान्तर सन्दर्भो, कथाओं आदि से उनके विराट व्यक्तित्व का पता चलता है। महान् शास्त्रार्थी और वाद-विजेता के रूप में चातुर्दिक उनकी ख्याति थी। यही कारण है कि वे जैन वाड़मय में सफलतार्किकचक्रचूड़ामणि, तर्कभूवल्लभ, महद्धिक, तर्कशास्त्रवादीदसिंह, समदर्शी आदि विशेषणों से जाने जाते हैं। प्रथम अध्याय के प्रथम परिच्छेद में उनके व्यक्तित्व से सम्बन्धित इन्हीं विशेषताओं पर शिलालेख आदि उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर प्रकाश डाला गया है। जीवनवृत्त से सम्बन्धित "लघुहव्व" सन्दर्भ जो कि क्षेपक के रूप में प्रतीत होता है, उसकी अन्यत्र कहीं पुष्टि नहीं होती। कथाओं में भी उनका जीवनवृत्त प्राप्त होता है, पर इसकी अन्य किसी भी सन्दर्भ से प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। इसी तारतम्य में समीक्षक विद्वानों की उपलब्ध सामग्री के आधार पर अकलंक के समय पर किये गये विचारों का पुनरीक्षण किया गया है। वह इसलिये आवश्यक हुआ कि कई विद्वानों ने अकलंक का समय बाद का निर्धारित करके उनका सम्बन्ध गुरु-शिष्य के रूप में समन्तभद्र से जोड़कर जैन दर्शन के इतिहास में भ्रममूलक निष्कर्ष निकाले हैं, जो बिल्कुल निराधार हैं । इसका समाधान विभिन्न समयों में लिखे गये आचार्यों द्वारा अपने ग्रन्थों में अकलंक के नाम से एवं अकलंक की कृतियों के अन्तरंग परीक्षण से हो जाता है । समय-निर्धारण में "लघुहव्व' नामक कथाओं में आये "शुभतुंग' का प्रसंग आदि समीक्षकों के प्रधान सहायक रहे। जिनकी ऐतिहासिक राजाओं के समय से संगति बैठाकर विद्वानोंने समय निर्धारण के प्रयत्न किये हैं। सम्पूर्ण तथ्यों के अवलोकन के बाद यह सत्य प्रतीत होता है कि अकलंक का समय आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय के प्रथम परिच्छेद में अकलंक के जीवनवृत्त और समय का, मूल सामग्री से मिलानकर पुनरीक्षण किया गया है। बीसवीं शताब्दी के महान् समालोचक विद्वान् स्व० डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने अकलंक की कृतियों का अंतरंग एवं बहिरंग रूप से गहन आलोडन किया है। यही नहीं, उन्होंने अगाध परिश्रमपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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