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( ४२ ) हरिभद्र की विशेषता यह थी कि उनका योग वर्गीकरण मौलिक था। इस रूप में वह न तो आगमों में मिलता है और न ही अन्य योग परम्पराओं से उधार लिया गया है। आचार्य हरिभद्र ने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थों में उन सब साधनों को योग कहा है जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्म-मल का नाश होता है और आत्मा का मोक्ष के साथ संयोग होता है । ' आचार्य हरिभद्र के बाद आचार्य हेमचन्द्र १२वीं शताब्दी के प्रख्यात जैन आचार्य हुए हैं, इनकी रचना योग शास्त्र में हठ-योग तथा अष्टांग-योग का प्रभाव दिखायी देता है । मुनिसुन्दर सूरि (१५वीं शती) कृत आध्यात्मकल्पद्रुम में १६ अधिकारों की चर्चा की गयी है जिसमें योगियों के आपेक्षित सामग्री की चर्चा है साथ ही हरिभद्र कृत चार भावनाओं का भी वर्णन है । यशोविजय ( १८वीं शताब्दी) कृत योगपरक ग्रन्थ--
(१) आध्यात्मसार-इसमें गीता एवं पातंजलयोगसूत्र के विषयों का समन्वयात्मक विवेचन है।
(२) आध्यात्मोपनिषद्-इसमें शास्त्र-योग, ज्ञान-योग, क्रिया-योग और साम्य-योग पर प्रकाश डाला गया है।
(३) योगावतार बत्तीसी-इसमें आचार्य हरिभद्र के योग ग्रन्थों की ही विस्तृत व्याख्या है।
(४) पातंजल योगसूत्र एवं योगविशिका-योगविंशिका में योगसूत्रगत समाधि की तुलना जैन ध्यान से की गई है ।
(५) योगदृष्टिनी सज्झायमाला-इसमें योगदृष्टिसमुच्चय में प्रतिपादित आठ दृष्टियों का ही सम्यक् विवेचन किया गया है ।
साथ ही हरिभद्रकृत योगविंशिका और षोडशक की टीका भी इन्होंने लिखे है । वास्तव में आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि को इन्होंने आगे बढ़ाया है ।२ इन पर हरिभद्र का सर्वाधिक प्रभाव है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के अनेक आचार्यों ने भी योग ग्रन्थ-विषयक लिखे हैं
१. 'मोक्खेण जोयणाओं जोगो'--योगविशिका गाथा-१ २. जैनयोगनन्थ चतुष्टय-सम्पादक --छागनलाल शास्त्री, पृ० ७४ ।
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