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( ४१ ) तृतीय अध्याय में हरिभद्र के पूर्व और पश्चात् के प्रमुख योग ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, जिससे हरिभद्र के योग के विकास क्रम को समझा जा सके ।
जैन परम्परा के मूल ग्रन्थ आगम हैं । उसमें पांच महाव्रत, समिति, गुप्ति, तप, ध्यान, स्वाध्याय को श्रमण साधना का प्राण माना गया है । जैन आगमों में एक-दो सन्दर्भो को छोड़कर सामान्यतया योग शब्द समाधि या साधना के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। वहां योग का अर्थ है मन वचन और काय (शरीर) की प्रवृत्ति । जैन आगमों में योग साधना के अर्थ में ध्यान शब्द का प्रयोग हुआ है। ध्यान का अर्थ है अपने योगों (वृत्तियों) को आत्मा में केन्द्रित करना। जैन परम्परा में ध्यान के साथ साथ ही आसन और प्राणायाम का भी उल्लेख आता है क्योंकि इस प्रक्रिया से शरीर को कुछ देर साधा जा सकता है। यद्यपि जैन आगमों में आसन और प्राणायाम पर अधिक बल नहीं दिया गया है। आगम ग्रन्थों में ध्यान के लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदि का वर्णन है।' प्राचीन नियुक्तियों में भी आगमों में वर्णित ध्यान का ही स्पष्टीकरण किया गयाहै। आचार्य उमास्वाति (विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी) कृत तत्त्वार्थसूत्र में भी ध्यान का जो वर्णन है वह आगमों से भिन्न नहीं है। भद्रबाह (विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी) कृत आवश्यकनियुक्ति में भी ध्यान का वर्णन मिलता है । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (छठीं शताब्दी) रचित ध्यान-शतक भी आगम शैली में ही लिखा गया है।
आगम युग से लेकर यहां तक योगविषयक वर्णन में आगम शैली की ही प्रधानता रही है। परन्तु आचार्य हरिभद्र (८वीं शताब्दी) ने परम्परा से चली आ रही वर्णनशैली को परिस्थिति के अनुरूप एक नया रूप दिया। जैन परम्परा में योग शब्द का पातंजल योगदर्शन सम्मत अर्थ में सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र ने किया। आचार्य १. स्थानांगसूत्र-४,१, समवायांगसूत्र-४, भगवतीसूत्र-२५।७, उत्तरा
ध्ययनसूत्र ३०॥३५ । २. आवश्यकनियुक्ति, कार्योत्सर्ग अध्ययन, १४६२-८६ ३. तत्त्वार्थसूत्र-९।२७ ४. हरिभद्रीयआवश्यकवृत्ति, पृ० ५८१
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