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(२) कुल योगी-ऐसे योगी किसी से भी द्वेष नहीं रखते, देव, गुरु, धर्म आदि उन्हें स्वभाव से ही प्रिय होते हैं, तथा ये दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध और जितेन्द्रिय कहलाते हैं, कुल योग के अधिकारी होते हैं।
(३) प्रवृत्तिचक्र योगी-जिन मनुष्यों के किसी भी अंग से योग चक्र का स्पर्श हो जाता है, वे योग में प्रवृत्त हो जाते हैं, उन्हें प्रवृत्ति चक्र योगी कहा जाता है।
(४) सिद्ध योगी ऐसे योगी अपनी योग साधना से सिद्धि को प्राप्त कर चुके होते हैं। अतः इन्हें योग साधना की आवश्यकता नहीं रह जाती है। ३. योगशतक
इसमें १०१ गाथाएँ हैं, प्रारम्भ में योग के स्वरूप का वर्णन किया गया है जो दो प्रकार का है
(१) निश्चय योग-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के आत्मा के साथ सम्बन्ध को निश्चय योग कहा गया है। क्योंकि यही आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है इसीलिए उसकी संज्ञा निश्चय योग है।
(२) व्यवहार योग-धर्मशास्त्रों में बताई गई विधि के अनुरूप गुरुजनों का विनय, सेवा उनसे तत्त्वज्ञान सुनने की उत्कंठा तथा अपनी क्षमता के अनुरूप शास्त्रविहित आचरण करना ही व्यवहार योग है। __योग के अधिकारी तथा अनाधिकारी के प्रश्न को इसमें योगबिन्दु की ही भाँति निरूपित किया गया है। योग अधिकार प्राप्ति के लिए साधक को तैयारी करनी पड़ती है। प्रथमाधिकारी 'अपुनर्बन्धक' के लिए पर-पीड़ा परिहार, दीदान, गुरु एवं देवपूजा, सत्कार इत्यादि लौकिक धर्म पालन की चर्चा की गयी है। कर्मों की अवधि तथा फल देने की शक्ति कषाय की तीव्रता पर निर्भर करती है। कषाय जितना तीव्र होगा फल उतना ही कटु होगा । अपुनर्बन्धक कार्य को इस रूप में सम्पादित करता है कि वे पुन: बन्धन के कारण नहीं बनते हैं।
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