Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 37
________________ ( ३७ ) (क) अपुनर्बन्धक- जो जीव अभ्यास द्वारा उत्तरोत्तर गुणों का विकास करता जाता है वह अपुनर्बन्धक होता है। (ख) सम्यक दृष्टि -जिस जीव में प्रशम भाव अर्थात् शान्त-चित्त वृत्ति का विशेष रूप से प्रकरन हो जाता है उसे सम्यक् दृष्टि कहा जाता है । (ग) देशविरति -जब जीव अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वपत्नि सन्तोष और अपरिग्रहरूपी अणुव्रतों, गुणवतों तथा शिक्षाव्रतों का पालन करने लगता है तब उसकी स्थिति देशविरति की हो जाती है। (घ) सर्वविरति-यहाँ पहुंच कर जीव हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म, कामवासना और परिग्रह आदि सभी पापों का पूर्णरूप से त्याग कर लेता है और आत्मा में लीन रहता है ।। ___इसके साथ ही चारित्र के वर्णन में योग की पांच भूमिकाएं वर्णित (क) आध्यात्म-यथाशक्ति अणुव्रत या महाव्रत को स्वीकार करके मैत्री, प्रमोद, करूण एवं मध्यस्थ भावना पूर्वक आगम के अनुसार आत्म-चिन्तन करना आध्यात्म साधना है। (ख) भावना-आध्यात्मिक सजगता का सतत् अभ्यास करना भावना है। (ग) ध्यान-आत्म सजगता का विकास करके चित्त को किसी एक पदार्थ पर स्थिर करना 'ध्यान' है। (घ) समता- संसार के सभी पदार्थों पर तटस्थ भाव रखना 'समता' है। (च) वृत्ति-संक्षय - भावना, ध्यान तथा समत के अभ्यास से वृत्ति संक्षय उद्भावित होता है। २. योगष्टिसमुच्चय प्रस्तुत प्रन्थ २२८ श्लोकों का है। इसमें योग के अधिकारियों को तीन विभागों में विभक्त किया गया है। प्रथम विभाग में आठ योग दृष्टियों को प्रस्तुत किया गया है। ये दृष्टियां निम्न हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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