Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 40
________________ ४. योगविशिका · ( ४० ) इसमें २० गाथाएँ हैं । इसमें धर्म साधना के लिए की जाने वाली आवश्यक धर्म क्रिया को योग कहा गया है । इसकी पांच भूमिकाएँ बतायी गयी हैं। " (१) स्थान - कायोत्सर्गासन, पर्यकासन, पद्मासन आदि आसनों स्थान कहा है । (२) ऊर्ण - क्रिया करते समय जिस सूत्र ( मन्त्र ) का उच्चारण किया जाता है उसे ऊर्ण कहते हैं । (३) अर्थ - सूत्र के अर्थ का बोध होना अर्थ है । (४) आलम्बन - बाह्य विषयों पर ध्यान केन्द्रित करना आलम्बन योग है । (५) अनालम्बन- - आलम्बन किये बिना शुद्ध आत्मा की समाधि को अनालम्बन कहा गया है । इसमें प्रथम दो को कर्मयोग और अन्तिम तीन भेदों को ज्ञानयोग कहा गया है । ५. ब्रह्म - सिद्धांत - सार यह ४२३ पद्यों में रचित संस्कृत रचना है । इस ग्रन्थ में सर्वदर्शनों का समन्वय है । षोडशकप्रकरण में जिज्ञासा, अद्वैत आदि आठ अंगों का जैसा उल्लेख है वैसा उनके श्लोक ३५ में है, योगदृष्टि समुच्चय में जैसा इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामर्थ्ययोग का जो निरूपण है वैसा ही श्लोक १८८-१९१ में है । श्लोक ५४ में अपुनर्बन्धक का उल्लेख योगसमुच्चय जैसा है । १ ६. षोडशक इत ग्रन्थ में कुल २५७ गाथाएँ हैं । इसमें धर्म के आन्तरिक स्वरूप कक्षा, देशना, लक्षण, मन्दिर निर्माण इत्यादि विषयों का संक्षिप्त विवेचन है । इसमें प्रत्येक विषय पर १६ - १६ गाथाएँ हैं । १. योगविशिका टीका-३ २. जैन साहित्य का बृहइतिहास, भाग - ४, पृ० २३७ ३. बही ४. शास्त्रवार्तासमुच्चय और उसकी व्याख्या, प्रस्तावना ले० मुनि जयसुन्दर विजय, पृ० ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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