Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ ( २४ ) विचार से भिन्न है । किन्तु इसे वृहद् अर्थ में सामान्य बुद्धि वस्तुवाद या अनुभववादी विचार कहना यथोचित जान पड़ता है, क्योंकि यह व्यावहारिकतावादी धारणा के विपरीत नहीं दीखता । यह संसार को सार्थक सिद्ध करने के उद्देश्य से जैन- दार्शनिकों की तरह मानवबुद्धि की सृजनात्मक क्षमता और प्रयोजनवादी क्रिया-शीलता को विशेष महत्त्व देता है, जैसा कि जैन- दार्शनिक भी यह विश्वास करते हैं कि मानव बुद्धि निरन्तर परिवर्तनशील है और उसमें विकास की क्षमता भी है, इसके अतिरिक्त सत् के सम्बन्ध में जो हमारी कोई विशेष धारणा है, दूसरी दृष्टि से देखने पर उसमें और भी परिवर्तन होते हैं । इस तरह सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान शनैः शनैः और भी विकसित होता जाता है । [ ४ ] इस प्रकार सत् के सम्बन्ध में जैन- दार्शनिकों की अनेकान्तवादीदृष्टि और पाश्चात्य व्यावहारिकता में हम समता देखते हैं । कहने का तात्पर्य है कि सत् के सम्बन्ध में दोनों के विचारों में हम अधिक समता पाते हैं । वस्तुओं को दोनों ही ज्ञेय मानते हैं और दोनों ही अपनी रुचि और प्रयोजन के अनुसार उन्हें देखते है और उनका अर्थ निरूपण करते हैं । अर्थात् अनेकान्तवादी या स्याद्वादी दृष्टिकोण के आधार पर ही उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय या विचार किया जा सकता है । वह किसी विशेष देश और काल से सीमित रहता है, उसकी सत्यता सापेक्ष और संभाव्य होती है । इन बातों से स्पष्ट है कि जिस प्रकार जैन दार्शनिकों की धारणा सत्य के सम्बन्ध में है, अर्थात् सभी ज्ञान सापेक्ष होते हैं, व्यावहारिकतावादी भी इसमें पूर्णतया सहमत हैं। ऐसे सत्य ज्ञान को वे व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी, किसी कार्य सम्पादन के लिए यंत्र, नैतिकता की दृष्टि से शुभ और उन्नत ऐसे कई रूपों में व्यक्त करते हैं । प्रत्येक ऐसे विचार के पीछे यही एक मात्र उद्देश्य निहित है कि हमारा ज्ञान, जो विशेष दृष्टि से उपेक्षित रहता है और जिसकी सत्यता उसी दृष्टि पर आश्रित है, वह उस प्रसंग में अवश्य सत्य होगा । संक्षेप में जैन- दार्शनिकों के अनेकान्तवाद और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद इन दोनों का उद्देश्य मुख्यतः सत्य के सम्बन्ध में यथार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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