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( ३१ ) सम्राट भरत के पश्चात् सगर, मघव, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभूम, महापन, हरिषेण, जय, ब्रह्मदत्त-ये ग्यारह चक्रवर्ती और हुए। ये सभी जैन संस्कृति के उपासक थे । तीन खण्ड के अधिपति वासुदेव और बलदेव भी जैन संस्कृति के ही अनुयायी थे। जैन संस्कृति के अनुयायी होने से अहिंसा की ओर उनका सहज आकर्षण था। ___आधुनिक ऐतिहासिक अन्वेषणों से यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि किसी युग में उत्तरी क्षेत्रों से बहुत बड़ी संख्या में आर्य लोग भारत वर्ष में आये । उनके आगमन के पूर्व यहाँ एक समुन्नत संस्कृति और सभ्यता विद्यमान थी।२ वह संस्कृति अहिंसा, सत्य और त्याग पर आश्रित थी। यहाँ तक कि उस संस्कृति के लोग अपने सामाजिक, व धार्मिक हितों के संरक्षण के लिए युद्ध करना पसन्द नहीं करते थे। अहिंसा पर उनकी पूर्ण निष्ठा थी और वह उनके जीवन व्यवहार का प्रमुख अंग थी।३ भौतिक दृष्टि से भी उनका जीवन पूर्ण समृद्ध था।
धर्मानन्द कोसम्बी के अभिमतानुसार जो आर्य लोग बाहर से आये थे, उनकी संस्कृति लोकषणा-प्रधान थी । आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष, अहिंसा, सत्य, त्याग आदि सिद्धान्त वे नहीं मानते थे। हिंसा-प्रधान यज्ञों में तथा भौतिक पदार्थों (की उपलब्धि) में उनकी (गहन) निष्ठा थी। अतः उनके आगमन के पूर्व जो श्रमण संस्कृति विद्यमान थी, उसके साथ उनका संघर्ष हुआ। वासुदेव, श्रीकृष्ण श्रमण-सस्कृति के उपासक थे। उन्हें यह नवागत संस्कृति मान्य नहीं थी, अतः आर्यों के अधिनायक इन्द्र के साथ उनके संघर्ष होते रहे। १. भरहो सगरो मघवं, सणंकुमारो य रायसद्लो ।
संती कुयू य अरो, हवइ सुभूमो य कौरव्वो॥ नवमो य महापउयो, हरिसेणे चेव रायसद्लो । जयनामो य नरवई, बारमो बंभदत्तो य ।।
-समवायांगसूत्र, ४८-४९ २. चक्रवर्ती, ए०-दि रिलीजन आफ अहिंसा पृ० १७ ३. भारतीय संस्कृति और अहिंसा-पृ० ५७ ४. वही
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