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जब तक राजनीति जैन संस्कृति की पृष्ठ भूमि पर अपना विकास करती रही तब तक वह समत्व-प्रधान रही । उसमें चरित्रमूलक सौरभ और साधना का सौन्दर्य परिव्याप्त था । मानवता का नवनिर्माण करना ही उसका लक्ष्य था । नैतिकता के उच्च धरातल पर राष्ट्र को प्रतिष्ठित करना उसका कार्य था । उसकी यह दृढ़ धारणा थी कि चारित्रिक नैतिकता और व्यवहार-शुद्धि ही राष्ट्र की अमूल्य निधि है ।
यह कहना नितान्त भ्रामक है कि जैन संस्कृति के अहिंसामूलक सिद्धान्तों ने भारत को कायर बना दिया और परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ दिया । अहिंसक कभी कायर नही होता । जैन संस्कृति के उपासक सम्राटों, मंत्रियों, दण्डनायकों और अन्य अधिकारियों के जीवनवृत्त इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि वे कितने वीर, साहसी और योद्धा थे । उन्होंने देश को आजाद और आबाद रखने के लिए महान पुरुषार्थ किया । कायरता और परतंत्रता का उदय तब हुआ जब हिंसा का उत्कर्ष हुआ, नैतिक परम्परायें धूमिल हुई, राजनीति जैन संस्कृति की सहचारी नहीं रही और वह स्वार्थी पुरोहितों के प्रपंचों से प्रभावित हो गई । अन्ततः मैं यह कहने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि जब तक भारतीय राजनीति जैन संस्कृति पर आश्रित रही, तब तक वह गुलाब के पुष्प की भांति चारित्रिकसौरभ से सुवासित रही ।
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शोध सहायक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी
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