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( २८ ) प्रवृत्ति मार्ग का स्पष्ट विधान नहीं किया है, यथापि जो उल्लेख किये हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं ।
जैन संस्कृति का मूल स्रोत उस काल तक जाता है, जिसे हम प्रागैतिहासिक काल के नाम से जानते हैं, तथापि आगम साहित्य के आलोक में और पौराणिक उद्धरणों के आधार से उस पर चिन्तन किया जा सकता है।
संस्कृति के उषाकाल से ही राजनीति का सम्बन्ध जन-जीवन से रहा है। प्रस्तुत अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे के अवसान काल में जब धीरे-धीरे योगलिक सभ्यता क्षीण होने लगी, जनसंख्या की वृद्धि होने लगी और कल्पवृक्षों से आवश्यकताओं की पूर्ति न होने लगी तब मानव समाज में परस्पर संघर्ष होने लगा। लूट, खसोट तथा संग्रह की हीन मनोवृत्तियां पनपने लगीं। उन प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण हेतु ही कुलव्यवस्था का विकास हुआ । कुलों की सुव्यवस्था करने वाले को 'कुलकर' की संज्ञा प्रदान की गयी। __ स्थानांग , समवायांग' और आवश्यकनियुक्ति के अनुसार-- १-विमलवाहन, २-चक्षुष्मान, ३-यशस्वी, ४- अभिचन्द्र, ५-प्रसेन जित्, ६-मरुदेव, और ७–नाभि ये सात कुलकर हुए और उनके शासनकाल में हाकार, माकार और धिक्कार इन तीन दण्ड-नीतियों का प्रवर्तन हुआ।
प्रथम और द्वितीय कुलकर के समय हाकारनीति चली६ अर्थात्हा! तूने यह क्या किया ? तृतीय और चतुर्थ कुलकर के समय हाकार १. स्थानांगसूत्र वृत्ति सू० ७६७ पत्र ५२८ २. वही , , ७६७ पत्र ५१८ ३. समवायांगसूत्र-१५७ ४. पढमेत्थ विमलवाहण, चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो य पसेणइए, मरुदेवे चेव नाभी य ।
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५२ ५. हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव दंडनीतिओ। वोच्छं तासि विसेसं, जहक्कयं आनुपुब्बीए ।
-~-आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१६४ ६. "ह" इत्याधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हकारः
__ ---स्थानांगसूत्रवृत्ति पृ० ३९९
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