Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 21
________________ ( २१ ) संदर्भ में ही 'सत्' की व्याख्या परोक्ष रूप से हम अवश्य पाते हैं । जैसा कि जैन-दार्शनिक 'सत्' को अनुभवगम्य मानते हैं, व्यावहारिकतावादी दार्शनिक भी अपनी वस्तुवादी धारणा के अनुकूल इससे पूर्णतया सहमत हैं। वे इन्द्रियानुभव से प्राप्त ज्ञान को प्रामाणिक मानते हैं और इस प्रकार अनुभव में आने वाली वस्तुओं को सत् समझते हैं। इसका यह तात्पर्य है कि यह विषयगत संसार अनेकात्मक है और यहां की प्रत्येक वस्तु अनेक समान तथा असमान धर्मों से युक्त है। व्यावहारिकतावादी दार्शनिक जेम्स प्रत्यक्षानुभूति को ज्ञान का सबसे सरल और निश्चित साधन मानते हैं। साक्षात वस्तु के सम्बन्ध में वही विचार या प्रत्यक्ष जो उस वस्तु का यथार्थ ज्ञान देता है, सर्वोत्तम प्रत्यय माना जाता है।' क्योंकि यहां किसी प्रकार विरोध का स्थान नहीं रहता और हमारे अनुभव तथा अनुभूत वस्तु इन दोनों में पूर्ण तादात्म्य हो जाता है। अतः जेम्स जैनों के समान यह स्वीकार करते हैं कि सत् का ज्ञान दृष्टिकोण भेद पर निर्भर करता है। किसी वस्तु को हम जिस दृष्टि से देखते हैं या उसका प्रत्यक्ष बोध जिस रूप में होता है, उसे ही सत् का यथार्थ स्वरूप हमें मानना चाहिए। जेम्स कहते हैं---'अनेकों परिचित वस्तुओं में प्रत्येक व्यक्ति मानवीय तत्त्व को पहचान लेगा । हमारे प्रयोजन के अनुसार हम किसी प्रदत्त सत् को एक या दूसरे तरीके से सोच सकते और वह सत् अपने आपको हमारी संकल्पना के अनुरूप ढाल देता है। १. विलियम जेम्म, ‘द मिनिंग ऑफ टू थ' (न्यूयार्क, १९२७, पृष्ठ ४१) २. सामान्यतः सत् वह है जिसकी सत्य ज्ञान उपेक्षा नहीं कर सकता और इस दृष्टिकोण के अनुसार सत् का प्रथम भाग हमारे संवेदनों का सतत प्रवाह है । वे एक तरह से हमारे ऊपर जबर्दस्ती थोपे जाते हैं, हम यह भी नहीं जानते कि वे कहाँ से आते हैं ( अर्थात् उनके उद्भव स्थल कहां हैं ), उनके स्वरूप क्रम और संख्या पर हमारा नियंत्रण नहीं के बराबर होता है। -विलियम जेम्स, 'प्रयोजनवाद', अनु० ( राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी जयपुर, १९७२ ) । पृष्ठ १४१ । ३. वही, पृष्ठ १४४ Jain Education International hat For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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