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जैन-दार्शनिक 'द्रव्य' या सत् पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का विलक्षण मानते हैं । (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तम्) प्रत्येक द्रव्य चाहे वह चेतन हो या अचेतन, त्रिलक्षण युक्त परिणामी है। उत्पाद और व्यय को 'पर्याय' और ध्रौव्य को 'गुण' कहा है । गुण नित्यता का सूचक है और पर्याय परिवर्तन का । जैन-दार्शनिक वस्तु में उत्पाद और व्यय अवश्य मानते हैं, परन्तु उनके अनुसार मूल वस्तु का उत्पाद और व्यय नहीं होता है, प्रत्युत वस्तु के पर्यायों का उत्पाद और व्यय है । अर्थात् जैन दार्शनिकों के अनुसार देश और काल सत् की व्याख्या में भेद अवश्य लाते हैं, पर उसके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं लाते। सत् प्रतिक्षण परिवर्तित होकर भी कभी समूल नष्ट नहीं होता। ___ जैन दार्शनिक सत्कार्यवाद के समर्थक होने के कारण यह मानते हैं कि कार्य पर्यायों का एक नवीन रूप है, वस्तु का स्वभाव नहीं। दूसरे शब्दों में वस्तु का वास्तविक जातीय गुण नहीं बदलता, केवल उसके रूप या पर्याय ही बदलते हैं। जैन-दर्शनिकों का स्पष्ट मत है कि जिस वस्तु का भाव है उसका निरपेक्ष रूप से अभाव नहीं हो सकता। इसी प्रकार जिसका अभाव है, वह अस्तित्व में भी नहीं आ सकता । अर्थात् ये निरपेक्ष रूप से कभी नहीं पाये जाते। वस्तु सापेक्ष है । एक विशिष्ट दृष्टिकोण की अपेक्षा सभी विद्यमान हैं, किन्तु दूसरे दृष्टिकोण की अपेक्षा कोई वस्तु विद्यमान नहीं है। _इस प्रकार सत् अपने आप में पूर्ण है। उसे एकान्तिक रूप से न तो पूर्ण और न तो आंशिक कहा जा सकता है। वह तो इन दोनों का सम्मिलित रूप है।
प्रत्येक व्यक्ति को 'सत्' का पूर्णरूपेण त्रिकालाबाधित यथार्थ दर्शन हो सके, यह संभव नहीं है। उसका त्रिकालाबाधित पूर्ण रूपेण साक्षास्कार पूर्णपुरुष ही कर सकते हैं। परन्तु वे भी उसे वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते । यही कारण है कि देश, काल, परिस्थिति, भाषा एवं शैली आदि की विविधता के कारण पूर्ण पुरुषों के कथन में भी शाब्दिक १. तत्त्वार्थ-सूत्र-५।२९ २. मुखर्जी सत्कारी 'जैन फिलासफी ऑफ वन-एक्सोलूटिज्म', ( भारती
महाविद्यालय, कलकत्ता, १९४४ ), पृष्ठ १३
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