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सत् का स्वरूप अनेकान्तवाद और व्यवहारवाद की दृष्टि में
-डा० राजेन्द्र कुमार सिंह 'सत्' का स्वरूप क्या है, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके समाधान हेतु मानव समाज आदिकाल से ही लगा हुआ है। क्या इस विश्व का स्वतंत्र अस्तित्व है या यह सृष्टि का परिणाम है ? क्या इस विश्व का पदार्पण एकाएक हुआ है या धीरे धीरे ? क्या इस विश्व में जड़तत्त्व प्रधान है या चेतन तत्त्व या दोनों ? क्या यह विश्व अनन्त है या सान्त आदि ऐसे अनेकों प्रश्न सत्ता के सम्बन्ध में होते रहे हैं जिनके समाधान का प्रयास दार्शनिकों द्वारा प्रत्येक युग में होता आया है। .. 'सत्' से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान भारतीय एवं पाश्चात्य अनेकों विद्वानों ने विभिन्न रूपों में करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत निबन्ध में हम जैन-दार्शनिकों की अनेकान्तवादी दृष्टि एवं पाश्चात्य दर्शन की व्यावहारिकतावादी दृष्टि पर एक तुलनात्मक विचार करेंगे तथा देखेंगे कि दोनों के विचारों में कितनी समानता है । यह ठीक है कि जैन विचारक मुख्यतः वस्तुबादी हैं और अधिकांश व्यावहारिकतावादी सिद्धान्त को मानते हैं और इस दृष्टि से उनके तात्विक विचारों में कुछ भेद भी है, परन्तु जहाँ तक 'सत्' के वास्तविक स्वरूप का प्रश्न है, दोनों के सिद्धान्तों में हम अधिक समता देखते हैं। 'अनन्त धर्मकं वस्तु' दोनों का मूल सिद्धान्त है। अर्थात जिस दष्टि से जैन-दार्शनिकों ने सत् को पहचानने का प्रयास किया है, पाश्चात्य व्यावहारिकतावादी विचारकों का भी प्रयास बहुत कुछ उसी रूप में हुआ है । - जैन-दर्शन में 'सत्' के लिए तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ आदि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है। तत्त्व-सामान्य के लिए इन १. एच० एस० भट्टाचार्य 'अनेकान्तवाद' (जैन संस्थान साहित्य प्रकाशन
समिति, भावनगर, १९५३) पृष्ठ १० ।
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