Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ ( १८ ) सभी शब्दों का उल्लेख एक ही अर्थ में हुआ है । जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय सम्प्रदायों में भी इन शब्दों का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में हमें मिलते हैं, जैसे-वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, आदि सात पदार्थ, न्याय दर्शन में प्रमाणादि सोलह पदार्थ, सांख्य-दर्शन में पुरुषप्रकृति आदि । जैन-दार्शनिक प्रत्येक 'द्रव्य' या 'सत्' को अनन्त धर्मों का मौलिक पिण्ड मानते हैं । अर्थात् सत् का स्वरूप बहुतत्त्ववादी है। परन्तु इस अनन्त धर्मों वाली वस्तु का ज्ञान विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न रूपों में एकांगी रूप में होता है। वे सभी 'सत्' को केवल एक दृष्टि से देखते हैं। जैसे भगवान बुद्ध ने सत् को अनात्मवादके आधार पर जानने का प्रयास किया और उसे क्षणिक या शून्य माना। इससे भिन्न दृष्टि वाले शंकराचार्य ने वेदों और उपनिषदों के आधार पर 'सत्' को समझने का प्रयास किया और उसे अद्वत घोषित किया। परन्तु जैनदर्शन के अनुसार ये सभी सिद्धान्त 'सत्' को केवल एक दृष्टि से देखने के कारण एकांगी हैं । 'सत्' तो अपने आप में अनन्त धर्मों को लिये हुए है । मानव का सत् सम्बन्धी ज्ञान आंशिक होता है जिसे जैन-दार्शनिक 'नय' की संज्ञा देते हैं । अर्थात् नयों द्वारा मानव सत् के एक-एक अंश को ही जान पाता है। मानव की दृष्टि परिमित और सीमित होती है। वह कचित् वस्तु को देख या जान पाता है। वस्तु का सर्वांग ज्ञान उसे युगपत नहीं होता है । फलस्वरूप मानव का प्रत्येक कथन सीमित दृष्टि/सापेक्ष है। अतः कोई निर्णय निरपेक्ष सत्य नहीं है। १. टाटिया नथमल :-'अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी,' आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, (श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६१) में प्रकाशित । २. दास गुप्ता एस० एन० 'भारतीयदर्शन', भाग-१ ( केम्ब्रीज यूनिवर्सिटी प्रेस, १९६३ ), पृष्ठ १७६ ३. टाटिया नथमल : 'स्टडीजइनजैनफिलासफी', (जैन कल्चरल रिसर्च सोसा इटी, बनारस, १९५१), पृष्ठ २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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