Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 14
________________ ( १४ ) के पूजन का निषेध किया, किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का ही निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, इन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित हुई, तो तारण स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से पहचाना जाने लगा । तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थान पर शास्त्रों की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में जैन परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ फिर भी पुरानी परम्पराएँ यथावत् रूप से चलती रहीं। पुनः बीसवीं शती में जहाँ गाँधी जी के गुरुतुल्य श्रीमद्राजचन्द्र के कारण अध्यात्मप्रेमियों का एक नया संघ बना । यद्यपि सदस्य संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो, किन्तु उनकी अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है । इसी प्रकार श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी ने महान अध्यात्मवादी दिगम्बर संत कुन्दकुन्द के समयसार जैसे अध्यात्म और निश्चय नय प्रधान ग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बर परम्परा में इस शताब्दी में एक नये आंदोलन को जन्म दिया। इस प्रकार जैन धर्म में भी युग-युग में देश और काल के प्रभाव से अनेक परिवर्तन होते रहे हैं, जिनकी संक्षिप्त झाँकी इस आलेख में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। विदेशयागा और वाहन-प्रयोग का प्रश्न आज पुनः जैनधर्म के आचार-विचार को लेकर परिवर्तन की बात कही जाती है। यह सत्य है कि युगीनपरिस्थितियों के बदलने पर किसी भी जीवित धर्म के लिए यह आवश्यक होता है कि वह युगानुरूप अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करे। आज विज्ञान और तकनीकी का युग है । प्रगति के कारण आज देशों के बीच दूरियाँ सिमट गयीं। आज जैन परिवार भी विश्व के प्रत्येक कोने में पहुँच चुके हैं। अतः उनके संस्कारों को जीवित रखने और विश्व में जैनधर्म की अस्मिता को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैन श्रमण वर्ग विश्व के देशों की यात्रा कर जैनधर्म का प्रसार करें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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