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श्रमण महावीर
ग्वाला बैलों को खोजता रहा, पर उनका कोई पता नहीं चला। वह अपने खेत में
चला गया ।
प्रकाश ने फिर तमस् को चुनोती दी। सूर्य उसकी सहायता के लिए आ खड़ा हुआ । दिन ने उसकी अगवानी में किए सारे द्वार खोल दिए । तमस् के साथ-साथ नींद का भी आसन डोल उठा । ग्वाला जागा । वह नित्यकर्म किए बिना ही बैलों की खोज में निकल गया । वह घूमता- घूमता फिर वहीं पहुंचा, जहां महावीर ध्यान की मुद्रा में गिरिराज की भांति अप्रकम्प खड़े हैं। उसने देखा --- बैल महावीर के आस-पास चर रहे हैं। रात की थकान, असफलता और महावीर के आस-पास बैलों की उपस्थिति ने उसके मन में क्रोध की आग सुलगा दी । उसके मन का संदेह इस कल्पना के तट पर पहुंच गया कि ये मुनि बैलों को हथियाना चाहते हैं । इसीलिए मेरे पूछने पर ये मौन रहे । उनके बारे में मुझे कुछ भी नहीं बताया । वह अपने आवेग को रोक नहीं सका। वह जैसे ही रस्सी को हाथ में ले महावीर को मारने दौड़ा, वैसे ही घोड़ों के पैरों की आहट ने उसे चौंका दिया । महाराज नंदिवर्द्धन उस दृश्य को देख स्तब्ध रह गए। महाराज ने ग्वाले को महावीर का परिचय दिया । वह अपनी मूर्खता पर पछताता हुआ वापस चला गया ।
महावीर की ध्यान प्रतिमा संपन्न हुई । महाराज नंदवर्द्धन सामने आकर खड़े हो गए । बोले, 'भन्ते ! आप अकेले हैं । जंगल में ध्यान करते हैं । आज जैसी घटना और भी घटित हो सकती है । आप मुझे अनुमति दें, मैं अपने सैनिकों को आपकी सेवा में रखूं । वे आप पर आने वाले कष्टों का निवारण करते रहेंगे ।'
भगवान् गम्भीर स्वर में बोले, 'नंदिवर्द्धन ! ऐसा नहीं हो सकता । स्वतंत्रता की साधना करने वाला अपने आत्मबल के सहारे ही आगे बढ़ता है । वह दूसरों के सहारे आगे बढ़ने की बात सोच ही नहीं सकता । "
यह घटना स्वतंत्रता का पहला सोपान है । इसके दोनों पावों में स्वावलंबने और पुरुषार्थ प्रतिध्वनित हो रहे हैं ।
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स्वावलंबन और पुरुषार्थ - ये दोनों अस्तित्व के चक्षु हैं । ये वे चक्षु हैं, जो भीतर और बाहर --- दोनों ओर समानरूप से देखते हैं । मनुष्य अस्तित्व की श्रृंखला की एक कड़ी है । पुरुषार्थ उसकी प्रकृति है । जिसका अस्तित्व है, वह कोई भी वस्तु क्रियाशून्य नहीं हो सकती । इस सत्य को तर्कशास्त्रीय भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है— अस्तित्व का लक्षण है क्रियाकारित्व | जिसमें क्रियाकारित्व नहीं होता, वह आकाशकुसुम की भांति असत् होता है | मनुष्य सत् है, इसलिए पुरुषार्थं उसके पैर और स्वावलंबन उसकी गति है ।
१. आवश्यकचूर्ण, पूर्वभाग, पृ० २६८- २७० ।
२. देखें-- आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पु० २७० ।