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विरोधाभास का वातायन
जीवन में विरोधों की अनगिन चयनिकाएं हैं। कोई भी मनुष्य जीवन के प्रभात से जीवन की सन्ध्या तक एकरूप नहीं रहता। एकरूपता का आग्रह रखने वाले इस अनेकरूपता को विरोधाभास मानते हैं। भगवान महावीर का जीवन इन विरोधाभासों से शून्य नहीं था।
भगवान् परिपद् के बीच में बैठे थे। एक आजीवक उपासक आकर बोला"भंते ! आप पहले अकेले रहते थे और अब परिषद् के बीच में रहते हैं। क्या यह विरोधाभास नहीं है ?'
'एकांगी दृष्टि से देखते हो तो है, अनेकान्त दृष्टि से देखो तो नहीं है।' 'यह कैसे ?'
'मैं साधना-काल में बाहर में अकेला था और भीतर में भरा हुआ । संस्कारों की पूरी परिपद् मेरे साथ थी । अव बाहर से मैं परिषद् के बीच हूं और भीतर में अकेला, संस्कारों से पूर्ण शून्य ।'
आजीवक संघ के आचार्य गोशालक ने भी भगवान् के जीवन को विरोधाभासों से परिपूर्ण निरूपित किया। मुनि आर्द्रकुमार वसंतपुर से प्रस्थान कर भगवान के पास जा रहे थे। उन दिनों भगवान् राजगह के गुणशीलक चैत्य में निवास कर रहे थे। बीच में आर्द्रकुमार की गोशालक से भेंट हो गई। गोशालक ने परिचय प्राप्त कर कहा
"आर्द्रकुमार ! तुम महावीर के पास जा रहे हो, यह आश्चर्य है। तुम्हारे जैसा समझदार राजकुमार कैसे बहक गया?'
'मैं बहका नहीं हूं। मैंने महावीर को जाना है, समझा है।' 'मैं उन्हें तुमसे पहले जानता हूं, वो तक उनके साथ रहा हूं।' 'महावीर के बारे में आपका क्या विचार है ?'