________________
श्रमण महावीर
मंडल में एकत्र होने लगे। तुम भी अपने यूथ के साथ उस मंडल में आ गए। देखते-देखते वह मंडल पशुओं से भर गया। अग्नि के भय से संत्रस्त होकर वे सब वैरविरोध को भूल गए। समूचा मंडल मैत्री-शिविर जैसा हो गया। उसमें सिंह, हिरन, लोमड़ी और खरगोश-सव एक साथ थे। उसमें पैर रखने को भी स्थान खाली नहीं रहा। _ 'तुमने खुजलाने को पैर ऊंचा उठाया। उसे नीचे रखते समय पैर के स्थान पर खरगोश को वैठे देखा । तुम्हारे मन में अनुकम्पा की लहर उठी । तुमने अपना पैर बीच में ही रोक लिया। उस अनुकम्पा से तुमने मनुष्य होने की योग्यता अजित कर ली।
'दो दिन-रात पूरे बीत गए । तीसरे दिन दावानल शान्त हुआ। पशु उस मंडल से बाहर निकल जंगल में जाने लगे । वह खरगोश भी चला गया । तुम्हारा पैर अभी अंतराल में लटक रहा था। तुमने उसे धरती पर रखना चाहा । तुम तीन दिन से भूखे और प्यासे थे । बूढ़े भी हो चले थे । पैर अकड़ गया था। जैसे ही पैर को नीचे रखने का प्रयत्न किया, तुम लुढ़क कर गिर पड़े, मानो बिजली के आघात से रजतगिरि का शिखर लुढ़क पड़ा हो । तीन दिन-रात तुम घोर वेदना को झेलते रहे। वहां से मरकर तुम श्रेणिक के पुत्र और धारिणी देवी के आत्मज़ बने ।
'मेघ ! जब तुम तिर्यञ्च योनि में थे, सम्यग्दर्शन तुम्हें प्राप्त नहीं था, तब तुमने खरगोश की अनुकम्पा के लिए ढाई दिन तक पैर को अंतराल में उठाए रखा। उस काप्ट को कष्ट नहीं माना । तुम्हारा कष्ट अहिंसा के प्रवाह में बह गया। अब तुम मनुप्य हो, सम्यग्दर्शन तुम्हें प्राप्त है, ज्योति-शिखा तुम्हारे हाथ में है, फिर अमा की अंधियारी ने कैसे तुम्हारी आंखों पर अधिकार कर लिया ? कैसे तुम थोड़े से कप्ट से अधीर हो गए? श्रमणों का चरण-स्पर्श कैसे तुम्हें असह्य हो गया ? उनकी किंचित् उपेक्षा कैसे तुम्हारे लिए सिरशूल बन गई ?'
मेघकुमार की स्मृति पर भगवान् ने इतना गहरा आघात किया कि उसकी स्मृति का द्वार खुल गया। अतीत के गहरे में उतरकर उसने पंक में खड़े हाथी को देखा और दर्शन की शृंखला में यह भी देखा कि श्वेतहस्ती पैर को अधर में लटकाए खड़ा है। वह स्तब्ध रह गया। उसका मानस-तंत्र मीन, वाणी-तंत्र अवाक् और शरीर-तंत्र निश्चेप्ट हो गया । वह प्रस्तर-प्रतिमा की भांति स्थिर-शान्त खड़ा रहा। दो क्षण तक सारा वातावरण नीरवता से भर गया । सब दिशाएं मौन के अतल में ड्य गई। सब कुछ शान्त, प्रशान्त और उपशान्त । 'भगवान ने मौन-मंग करते हुए कहा-'बोलो मेघ ! क्या चाहते हो ?'
भंते ! आपकी शरण चाहता हूं, और कुछ नहीं चाहता।' 'मूची में तो नहीं कह रहे हो ?' "मत ! प्रत्यक्ष दर्शन के बाद मूर्छा कहाँ ?'