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मुक्त मानस : मुक्त द्वार
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मुक्त मानस ने स्वीकृति दी और वह महावीर के पास दीक्षित हो गया।
४. भगवान् महावीर राजगृह के गुणशीलक चैत्य में विहार कर रहे थे। उस चैत्य के आसपास अनेक अन्यतीर्थिक परिव्राजक रहते थे। एक दिन कालोदायी, शलोदायी आदि कुछ परिव्राजक परस्पर बातचीत करने लगे। उनके वार्तालाप का विषय था भगवान् महावीर के पंचास्तिकाय का निरूपण । वे बोले-'श्रमण महावीर पांच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय । इनमें पहले चार अस्तिकायों को वे अजीव वतलाते हैं और पांचवें अस्तिकाय को जीव । चार अस्तिकायों को वे अर्मूत बतलाते हैं और पुद्गलास्तिकाय को मूर्त । यह अस्तिकाय का सिद्धान्त कैसे माना जा सकता है ? __ परिव्राजकों का वार्तालाप चल रहा था। उस समय उन्होंने श्रमणोपासक मद्दुक को गुणशीलक चैत्य की ओर जाते हुए देखा । एक परिव्राजक ने प्रस्ताव किया-'श्रमण महावीर पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं, यह हमें भलीभांति ज्ञात है। फिर भी अच्छा है कि मदुक से इस विषय में और जानकारी प्राप्त कर लें।' इस प्रस्ताव पर सव सहमत होकर वे मद्दुक के पास गए। उन्होंने कहा'मदुक ! तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण महावीर पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं। उनमें चार अजीव हैं और एक जीव। चार अर्मूत हैं और एक मूर्त । मदुक ! अस्तिकाय प्रत्यक्ष नहीं है, अतः उन्हें कैसे माना जा सकता है ?'
मदुक ने उन परिव्राजकों से कहा-'जो क्रिया करता है, उसे हम जानतेदेखते हैं और जो क्रिया नहीं करता, उसे हम नहीं जानते -देखते।'
सब परिव्राजक एक साथ बोल उठे-'तुम कैसे श्रमणोपासक हो जो अस्तिकाय को नहीं जानते-देखते ?'
'आयुष्मान् ! हवा चल रही है, यह आप मानते हैं ?' 'हां, मानते हैं।' 'आप हवा का रूप देख रहे हैं ?' 'नहीं, ऐसा नहीं होता।' 'आयुष्मान् ! नाक में गंधयुक्त पुद्गल प्रविष्ट होते हैं ?' 'हां, होते हैं।' 'आयुष्मान् ! नाप नाक में प्रविष्ट गंधयुक्त पुद्गलों का रूप देखते है ? 'नहीं, ऐसा नहीं होता।' 'लायुप्मान् ! अरणि में अग्नि होती है ?'
१. मगरई, २४.५३ ।। २. तोर्पकर फात का पाईसवां वर्ष ।