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श्रमण महावीर
कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं । मन का विश्वास जागने पर उन्होंने भगवान् को वंदना की और अपने को भगवान् के धर्म-शासन में विलीन कर दिया। ___भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे या नहीं, इसका निर्णय मैं नहीं दे सकता। क्योंकि मैं सर्वज्ञ नहीं हूं। असर्वज्ञ आदमी किसी को सर्वज्ञ स्थापित नहीं कर सकता। सुधर्मा भगवान् के गणधर थे। वे भगवान के साथ रहे थे। उनके प्रधान शिष्य थे जम्बू । उनके पास कुछ श्रमण और ब्राह्मण आए। उनसे धर्म-चर्चा की। जम्बू ने अहिंसा धर्म का मर्म समझाया। उनकी बुद्धि आलोक से जगमगा उठी। वे बोले'भंते ! इस अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किसने किया है ?'
'भगवान् महावीर ने।'
'उनका ज्ञान और दर्शन कितना विशाल था ? आपने अपने आचार्य के पास सुना हो तो हमें बताएं।'
'मेरे आचार्य सुधर्मा ने मुझे बताया था कि भगवान् का ज्ञान और दर्शन अनन्त
था।'
जो ज्ञान अनावृत होता है, वह अनन्त होता है। वह अनावृत ज्ञान ही सर्वज्ञता है। ताकिक युग में सर्वज्ञता की परिभाषा काफी उलझ गई। स्फटिक का निर्मल होना उसकी प्रकृति है । वह कोई आश्चर्य नहीं है। चेतना का निर्मल होना भी आत्मा की सहज प्रकृति है। वह कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य उन लोगों को होता है, जिनका ज्ञान आवृत है, जो इन्द्रिय के माध्यम से वस्तु को जानते हैं ।
परिव्राजक स्कंदक भगवान् महावीर के पास आ रहा था। गौतम उसके सामने गए। उन्होंने कहा-'स्कंदक ! क्या यह सच है कि पिंगल निग्रंन्य ने आपसे प्रश्न पूछे ? आप उनका उत्तर नहीं दे सके, इसीलिए आप भगवान महावीर के पास जा रहे हैं ?'
गौतम की यह बात सुन स्कंदक आश्चर्यचकित हो गया। उसने कहा-'यह मेरे मन की गढ़ बात किसने वताई ? कौन है ऐसा ज्ञानी ?'
गौतम बोले-'यह बात भगवान् महावीर ने वताई। वे जान-दर्शन को धारण करने वाले अर्हत् हैं । वे भूत, भविष्य और वर्तमान को जानते हैं । वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं ।
भगवान् यदा-कदा ऐसी अलौकिक वातें, पूर्वजन्म की घटनाए बताया करते थे। ये उनके सर्वज्ञ होने की माध्य नहीं हैं। उनकी सर्वज्ञता उनकी चेतना के अनावृत होने में ही चरितार्थ होती है।
१. भगाई. ६१२२.१६४ ॥ २. भगवई, ::.३८ ।