Book Title: Shraman Mahavira
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 320
________________ २९४ श्रमण महावीर २५. सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सन्तिशून्यं च मिथोनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ -जिसमें मुख्य की अर्पणा और गौण की अनर्पणा के कारण सबका निश्चय होता है और जहां परस्पर निरपेक्ष वस्तु निश्चयशून्य होती है, वह सब आपदाओं का अन्त करने वाला तुमारा तीर्थ ही सर्वोदय हैसबका उदय करने वाला है। २६. बन्धुर्न नः स भगवानरयोपि नान्ये, साक्षान्न दृष्टतर एकतमोऽपि चैषाम् । श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग् विशेष, वीरं गुणातिशयलोलतया श्रिताः स्मः ॥ -महावीर हमारे भाई नहीं हैं और कणाद आदि हमारे शत्रु नहीं हैं। हमने किसी को भी साक्षात् नहीं देखा है किन्तु महावीर के आचारपूर्ण वचन सुनकर हम उनके अतिशय गुणों में मुग्ध हो गए और उनकी शरण में आ गए। २७. नास्माकं सुगतः पिता न रिपवस्तीर्थ्या धनं नैव तै दत्तं नैव तथा जिनेन संहृतं किचित् कणादादिभिः । किन्त्वेकान्तजगद्धितः स भगवान् वीरो यतश्चामलं, वाक्यं सर्वमलोपहर्तृ च यतस्तद्भक्तिमन्तो वयम् ॥ -तीर्थकर हमारा पिता नहीं है और कणाद आदि हमारे शत्रु नहीं हैं । तीर्थकर ने हमें कोई धन नहीं दिया है और कणाद आदि ने हमारे धन का अपहरण नहीं किया है । किन्तु महावीर एकान्ततः जगत् के लिए हितकर हैं। उनके अमल वाक्य सव मलों को क्षीण करने वाले हैं, इसलिए हम महावीर के भक्त हैं। २८. पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेपः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ -महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और कपिल आदि के प्रति मेरा द्वेष नहीं है। जिसका वचन युक्तियुक्त है, उसे मैं स्वीकार करता हूं। १. युक्त्यनुशासन ६१ । वन्दनाकार-आचार्य समन्तभद्र । २. नोकतत्वनिर्णय । ३२ वन्दनाकार-आचार्य हरिभद्र। ३. लोकनस्वनिर्णय ३३ । ४. लोकतस्वनिर्णय ३८ ।

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