Book Title: Shraman Mahavira
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 323
________________ वंदना २९७ ३७. त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरी करौ । त्वद्गुणश्रोत्रिणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ।।' --मेरे नेत्र तुम्हारे मुख को सदा निहारते रहें। मेरे हाथ तुम्हारी उपासना में संलग्न और मेरे कान तुम्हारे गुणों को सुनने में सदा लीन रहें। ३८. कुण्ठापि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गणग्रहणं प्रति । ममैपा भारती तर्हि, स्वस्त्य तस्यै किमन्यया ॥ -मेरी वाणी कुंठित होने पर भी तुम्हारे गुणों को गाने के लिए उत्कंठित है तो उसका कल्याण है । मुझे दूसरी नहीं चाहिए। ३९. तव प्रेष्योस्मि दासोस्मि, सेवकोस्म्यस्मि किङ्करः। ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नातः परं ब्रुवे ।' -मैं तुम्हारा प्रेष्य हूं, दास हूं, सेवक हूं, किंकर हूं। तुम इसे स्वीकार कर लो। उससे आगे मेरी कोई मांग नहीं है । ४०. वाक्गुप्तेस्त्वत्स्तुतौ हानि:, मनोगुप्तेस्तव स्मृतौ ।' कायगुप्तेः प्रणामे ते, काममस्तु सदापि नः ।। -प्रभो! तुम्हारी स्तुति करने में वचनगुप्ति की हानि होती है। तुम्हारी स्मृति करने में मनोगुप्ति की हानि होती है । तुम्हें प्रणाम करने में कायगुप्ति की हानि होती है। प्रभो ! ये भले हों, मैं तुम्हारी स्तुति, स्मृति और वंदना सदा करूंगा। १. दोतरागरसव २०१६ । २. पीतरागस्त : २०१७ । ३. योतरागस्तष : २०१८ । ४. महापुराण ७६।२ । नंदनाकार-आचार्य जिनसेन ।

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