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धमणे महावीर
नहीं बनते । चलो, अब मैं तुम्हें लेने आया हूं।'
'आप जाएं, मैं नहीं जाऊंगा।' 'तो कहां जाओगे ?' 'अपने घर में ।' 'क्या राजगृह का प्रासाद तुम्हारा घर नहीं है ?' 'सचमुच नहीं है।' 'कब से ?'
'मैं श्मशान में ध्यान कर रहा था। मुझ पर चोरी का आरोप आया । आपने मुझे दोषी ठहराया। मैंने निश्चय किया कि यदि मैं इस आरोप से मुक्त हुआ तो भगवान महावीर की शरण में चला जाऊंगा। इसलिए राजगृह का प्रासाद अब मेरा घर नहीं है।'
'क्या माता-पिता को ऐसे ही छोड़ दोगे ?'
'सत्य अंधा और बहरा नहीं है। मैंने उसकी दृष्टि से देखा है कि वास्तव में आत्मा ही माता है और आत्मा ही पिता है ।'
'क्या तुम्हारी पत्नी का प्रश्न नहीं है ?' 'यदि वधक मुझे मारने में सफल हो जाता तो क्या होता ?' 'वह नियति का चक्र होता।' 'यह सत्य का उपक्रम है।'
श्रेणिक मौन । सारा वातावरण मौन । वारिषेण के चरण भगवान् महावीर की दिशा में आगे बढ़ गए।
४. राजगृह का वैभव उन्नति के शिखर को छ रहा था। वह धन और धर्मदोनों की समृद्धि का केन्द्र बन रहा था। भगवान् महावीर का वह मुख्य विहारस्थल था । भगवान् ने चौदह चातुर्मास वहां बिताए । वैभारगिर की गुफाओं में भगवान् के सैकड़ों श्रमणों ने साधना की लौ जलाई। उसके आसपास फैले हुए जंगलों ने अनेक श्रमणों को एकान्त साधना के लिए आकृष्ट किया। उन्हीं जंगलों
और गुफाओं में एक दूसरी साधना भी चल रही थी। राजगृह को आतंकित करने वाले चोर और डाकू उन्हीं की शरण में डेरा डाले बैठे थे । भगवान् ने ठीक ही कहा था कि जो आत्मोत्थान का हेतु हो सकता है वह आत्मपतन का भी हेतु हो सकता है । जो आत्मपतन का हेतु हो सकता है वह आत्मोत्थान का भी हेतु हो सकता है । वैभारगिरि की गुफाएं और जंगल भगवान् के श्रमणों के लिए आत्मोत्थान के हेतु बन रहे थे तो वे चोर और डाकुओं के लिए आत्म-पतन के हेतु भी बन रहे थे। ___ लोहखुरो नामक चोर ने वैभारगिरि की गुफा को अपना निवास-स्थल बना रखा था। उसकी पत्नी का नाम था रोहिणी। उसके पुत्र का नाम था रोहिणेय । लोहखुरो दुर्दान्त दस्यु था। उसने राजगृह के धनपतियों को आतंकित कर रखा