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मुक्त मानस : मुक्त द्वार
'भंते ! उससे क्या होता है ?' 'तप करने की क्षमता विकसित होती है।' 'भंते ! उससे क्या होता है ?' 'पूर्व-संचित कर्म-मल क्षीण होते हैं।' 'भंते ! उससे क्या होता है ?' 'चंचलता विच्छिन्न होती है।' 'भंते ! उससे क्या होता है ?' 'सिद्धि होती है।"
२. भगवान् पार्श्व का धर्म-तीर्थ भगवान् महावीर के धर्म-तीर्थ से भिन्न था। उनके श्रमण भगवान महावीर के श्रमणों से मतभेद भी रखते थे। समय-समय पर वे महावीर के सिद्धान्तों की आलोचना भी करते थे। फिर भी भगवान् महावीर ने पार्श्व के श्रमणों के यथार्थ-बोध का मुक्तभाव से समर्थन किया।
उस समय श्रमण-संघों का लोक-संग्रह की ओर झुकाव नगण्य था। उनकी सारी शक्ति आत्म-साधना तथा सत्य-शोध में लगती थी। इसीलिए उनमें साम्प्रदायिक आग्रह नहीं पनपा। जैन श्रमणों का लोक-संग्रह की ओर झुकाव बढ़ा तब एक नियम बना कि जैन श्रमण दूसरे श्रमणों या परिव्राजकों का सत्कार-सम्मान न करे। दूसरे का सत्कार-सम्मान करने से जैन उपासकों में श्रद्धा की शिथिलता आती है । वे जैन श्रमणों की अपेक्षा उन्हें अधिक पूजनीय मानने लग जाते हैं। अतः उपासकों की श्रद्धा को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए मुनि अन्यतीथिक साधुओं का सत्कार-सम्मान न करे।
भगवान् महावीर के समय में यह नियम नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय व्यवहार काफी मुक्त था। भगवान् ने गौतम से कहा-'गौतम ! आज तुम अपने पूर्व-परिचित मित्र से मिलोगे।'
'भंते ! वह कौन है ?' 'उसका नाम स्कंदक है।' "भंते ! मैं उससे कब मिलूंगा ?'
'वह अभी रास्ते में चल रहा है । वहुत दूर नहीं है । तुम अभी-अभी थोड़ी देर में उससे मिलोगे।'
"भंते ! क्या मेरा मित्र आपका शिष्य बनेगा ?' 'हां, बनेगा।'
भगवान यह कह रहे थे, इतने में स्कंदक सामने आ गया। गौतम ने स्कंदक को निकट आते हुए देखा । वे तत्काल उठे और स्कंदक के सामने जाकर वोले
१. भगवई, २६२-१११ ।