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श्रमण महावीर
उसका मन न रोटी में उलझता है और न पानी में । उसका मन समता में उलझकर सदा के लिए सुलझ गया । उसके समत्व की निष्ठा ने जनता का आक्रोश
सद्भावना में बदल दिया । अहिंसा ने हिंसा का विष धो डाला । '
३. सहिष्णुता का आयाम
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तार्य जन्मना चाण्डाल थे । वे भगवान् महावीर के संघ में दीक्षित हुए । उनका मुनि जीवन ज्ञान और समता की साधना से प्रदीप्त हो उठा । उनके अन्तर् की ज्योति जगमगा उठी। वे संघ की सीमा से मुक्त हो गए। अब वे अकेले रहकर साधना करने लगे । एक बार वे राजगृह में आए । स्वर्णकार के घर भिक्षा लेने पहुंचे । स्वर्णकार उन्हें देख हर्ष-विभोर हो उठा । वह वंदना कर बोला- 'श्रमण ! आप यहीं ठहरें । मैं दो क्षण में यह देखकर आ रहा हूं कि रसोई बनी है या नहीं ?" स्वर्णकार भीतर घर में गया। मुनि वहीं खड़े रहे । स्वर्णकार की दुकान में क्रौंच पक्षी का युगल बैठा था । स्वर्णकार के जाते ही वह आगे बढ़ा और दुकान में पड़े स्वर्णवों को निगल गया ।
स्वर्णकार मुनि को घर में ले जाने आया । उसने देखा, स्वर्णयव लुप्त हैं । वह स्तब्ध रह गया। उसके मन में आवेश उतर आया। उसने स्वर्णयवों के विषय में मुनि से पूछा । मुनि मौन रहे । स्वर्णकार का आवेश बढ़ गया । वह बोला- 'श्रमण ! मैं अभी आपके सामने स्वर्णयव यहां छोड़कर गया । कुछ ही क्षणों में मैं यहां लौट आया । इस बीच कोई दूसरा व्यक्ति यहां आया नहीं । मेरे स्वर्णयत्रों के लुप्त होने के उत्तरदायी आपके सिवाय दूसरा कौन हो सकता है ?' मुनि अब भी मौन रहे ।
स्वर्णकार मुनि से उत्तर चाहता था। मुनि उत्तर दे नहीं रहे थे । उनका मौन स्वर्णकार की आकांक्षा पर चोट करने लगा । उसने आहत स्वर में कहा - 'श्रमण ! वे स्वर्णयव मेरे नहीं हैं । वे सम्राट् श्रेणिक के हैं । मैं उनके अन्तःपुर के आभूषण तैयार कर रहा हूं | यदि वे स्वर्णयव नहीं मिलेंगे तो मेरी क्या दशा होगी, क्या आप नहीं जानते ? आप श्रमण हैं । आपने कितना वैभव छोड़ा है ! आप मेरे सम्राट् के दामाद रहे हैं । अब आप मेरे आराध्य भगवान् महावीर के संघ में दीक्षित हैं । आप अपने त्याग को देखें, सम्राट् की ओर देखें, भगवान् की ओर देखें और मेरी ओर देखें । मन से लोभ को निवारें, मेरी वस्तु मुझे लौटा दें। मनुष्य से भूल हो सकती है । आप साधक हैं । अभी सिद्ध नहीं हैं । आप से भी भूल हो सकती है । अभी और कोई नहीं जानता । आप जानते हैं या मैं जानता हूं । तीसरा कोई नहीं जानता । आप मेरी बात पर ध्यान दें । मेरी वस्तु मुझे लौटा दें । भूल के लिए प्रायश्चित्त करें ।'
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१. अंतगडदसामो, ६ ।