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१९७८
श्रमण महावीर
अखण्ड रहती है। अखण्ड का बोध और वचन सत्य होता ही है । खण्ड का बोध और वचन भी सत्य होता है, यदि उसके साय 'स्यात्' (अपेक्षा) शब्द का भाव जुड़ा हुआ हो।
एक स्त्री बिलौना कर रही है। एक हाथ आगे आता है, दूसरा पीछे चला जाता है। फिर पीछे वाला आगे आता है और आगे वाला पीछे चला जाता है। इस आगे-पीछे के क्रम में नवनीत निकल जाता है । सत्य के नवनीत को पाने का भी यही क्रम है । वस्तु का वर्तमान पर्याय तल पर आता है और शेष पर्याय अतल में चले जाते हैं । फिर दूसरा पर्याय सामने आता है और पहला पर्याय विलीन हो जाता है । इस प्रकार वस्तु का समुद्र पर्याय की ऊर्मियों में स्पंदित होता रहता है। अनेकान्त का आशय है, वस्तु की अखण्ड सत्ता का आकलन-अमियों और उनके नीचे स्थित समुद्र का बोध । स्याद्वाद का आशय है-एक खण्ड के माध्यम से अखण्ड वस्तु का निर्वचन ।
सापेक्षता के सिद्धान्त की स्थापना कर भगवान् ने बौद्धिक अहिंसा का नया आयाम प्रस्तुत किया। उस समय अनेक दार्शनिक तत्त्व के निर्वाचन में बौद्धिक व्यायाम कर रहे थे। अपने सिद्धान्त की स्थापना और दूसरों के सिद्धान्त की उत्थापना का प्रबल उपक्रम चल रहा था। उस वातावरण में महावीर ने दार्शनिकों से कहा- 'तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या नहीं है। पर तुम अपेक्षा के धागे को तोड़कर उसका प्रतिपादन कर रहे हो, खण्ड को अखण्ड बता रहे हो, इस कोण से तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या है। अपेक्षा के धागे को जोड़कर उसका प्रतिपादन करो, मिथ्या सत्य हो जाएगा और खंण्ड अखण्ड का प्रतीक।' इस भावधारा में निमज्जन कर एक जैन मनीषी ने महावीर के दर्शन को मिथ्यादृष्टियों के समूह की संज्ञा दी। जितनी एकांगी दृष्टियां हैं, वे सब निरपेक्ष होने के कारण मिथ्या हैं । वे सब मिल जाती हैं, सापेक्षता के सूत्र में शृंखलित होकर एक हो जाती हैं तब महावीर का दर्शन बन जाता है। __सिद्धसेन दिवाकर ने यही बात काव्य की भाषा में कही है-~-'भगवन् ! सिन्धु में जैसे सरिताएं मिलती हैं, वैसे ही आपकी अनेकान्त दृष्टि में सारी दृष्टियां आकर मिल जाती हैं । उन दृष्टियों में आप नहीं मिलते, जैसे सरिताओं में सिन्धु नहीं होता।'
· सत्य के विषय में चल रहा विवाद एकांगी दृष्टि का विवाद है। पांच अन्धे यात्रा पर जा रहे थे। एक गांव में पहुंचे । हाथी का नाम सुना। उसे देखने गए। उनका देखना आंखों का देखना नहीं था। उन्होंने छूकर हाथी को देखा । पांचों ने हाथी को देख लिया और चिन्न कल्पना में उतार लिया। अव परस्पर चर्चा करने लगे। पहले ने कहा-'हाथी खंभे जैसा है।' दूसरा बोला-'तुम गलत कहते हो, हाथी खंभे जैसा नहीं है, वह केले के तने जैसा है।' तीसरा दोनों को झुठलाते हुए