________________
ध्यान, आसन और मौन
'वह क्या ?'
'आपने महावीर के ध्यान का अर्थ आत्मा को देखना किया है। क्या ध्यान का अर्थ सत्य का साक्षात्कार नहीं है ?'
'आत्म-दर्शन और सत्य-दर्शन क्या भिन्न हैं ?'
'महावीर ने चेतन और अचेतन-दो द्रव्यों का अस्तित्व प्रतिपादित किया है। सत्य-दर्शन में वे दोनों दृष्ट होते हैं। आत्म-दर्शन में केवल चेतन ही दृष्ट होता है। फिर दोनों भिन्न कैसे नहीं ?'
. 'तुम मेरा आशय नहीं समझे। अचेतन का दर्शन उसी को होता है, जिसका चैतन्य अनावृत हो जाता है और चैतन्य का अनावरण मन को चैतन्य में विलीन करने से होता है। इसलिए मैंने महावीर के ध्यान का अर्थ-आत्मा को देखना, मन के उद्गम को देखना-किया है।' ____ मैं बहुत-बहुत कृतज्ञता ज्ञापित कर अपने अन्तःकरण में लौट आया। मैंने सोचा, जिन लोगों के मानस में महावीर की दीर्घतपस्विता की प्रतिमा अंकित है, उनके सामने मैं महावीर की दीर्घध्यानिता की प्रतिमा प्रस्तुत करूं।
महावीर ने दीक्षित होकर पहला प्रवास कर्मारग्राम में किया। ध्यान का पहला चरण-विन्यास वहीं हुआ। वह कैवल्य-प्राप्ति तक स्पष्ट होता चला गया।
कुछ साधक ध्यान के विषय में निश्चित आसनों का आग्रह रखते थे। महावीर इस विषय में आग्रहमुक्त थे । वे शरीर को सीधा और आगे की ओर कुछ झुका हुआ रखते थे। वे कभी बैठकर ध्यान करते और कभी खड़े होकर । वे अधिकतर खड़े होकर ध्यान किया करते थे। वे शिथिलीकरण को ध्यान के लिए अनिवार्य मानते थे, इसलिए वे खड़े हों या बैठे, कायोत्सर्ग की मुद्रा में ही रहते थे। वे श्वास की सूक्ष्म क्रिया के अतिरिक्त अन्य सभी (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) क्रियाओं का विसर्जन किए रहते थे।
कुछ साधक ध्यान के लिए निश्चित समय का आग्रह रखते थे। महावीर इस आग्रह से मुक्त थे । वे अधिकांश समय ध्यान में रहते थे। उन्हें न शास्त्रों का अध्ययन करना था, और न उपदेश । उन्हें करना था अनुभव या प्रत्यक्षबोध । वे दूसरों की गाएं चराने वाले ग्वाले नहीं थे जो समूचे दिन उन्हें चराते रहें और दूध दुहने के समय उनके स्वामियों को सौंप आएं। वे अपनी गाएं चराते और उनका दूध दुहते थे। ___ महावीर सालंबन और निरालंबन-दोनों प्रकार का ध्यान करते थे। वे मन को एकाग्र करने के लिए दीवार का आलंबन लेते थे। वे प्रहर-प्रहर तक तिर्यभित्ति
१. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २६८ । २. आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ० ३०१ ।