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श्रमणे महावीर
(दीवार) पर अनिमेषदृष्टि टिकाकर ध्यान करते थे। इस त्राटक-साधना से केवल उनका मन ही एकाग्र नहीं हुआ, उनकी आंखें भी तेजस्वी हो गई। ध्यान के विकासकाल में उनकी नाटक-साधना (अनिमेषदृष्टि) बहुत लम्बे समय तक चलती थी।
एक बार भगवान् दृढभूमि प्रदेश में गए। पेढाल नाम का गांव और पोलाश नाम का चैत्य । वहां भगवान ने 'एकरात्रिकी प्रतिमा' की साधना की । आरंभ में तीन दिन का उपवास किया। तीसरी रात को शरीर का व्युत्सर्ग कर खड़े हो गए। दोनों पैर सटे हुए थे और हाथ पैरों से सटकर नीचे की ओर झुके हुए थे। दृष्टि का उन्मेप-निमेप बंद था। उसे किसी एक पुद्गल (विन्दु) पर स्थिर और सव इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थापित कर ध्यान में लीन हो गए।
यह भय और देहाध्यास के विसर्जन की प्रकृष्ट साधना है। इसका साधक ध्यान की गहराई में इतना खो जाता है कि उसे संस्कारों की भयानक उथल-पुथल का सामना करना पड़ता है । उस समय जो अविचल रह जाता है, वह प्रत्यक्ष अनुभव को प्राप्त करता है । जो विचलित हो जाता है वह उन्मत्त, रुग्ण या धर्मच्युत हो जाता है। भगवान् ने इस खतरनाक शिखर पर बारह बार आरोहण किया धा।
साधना का ग्यारहवां वर्ष चल रहा था । भगवान् सानुलट्ठिय गांव में विहार कर रहे थे। वहां भगवान ने भद्र प्रतिमा की साधना प्रारम्भ की। वे पूर्व दिशा की ओर मुंह कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो गए। चार प्रहर तक ध्यान की अवस्था में गड़े रहे । इसी प्रकार उन्होंने उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर चार-चार प्रहर तक ध्यान किया।
इस प्रतिमा में भगवान् को बहुत आनन्द का अनुभव हुआ। वे उसकी शृंखला में ही महाभद्र प्रतिमा के लिए प्रस्तुत हो गए। उसमें भगवान ने चारों दिशाओं में पल-एक दिन-रात तक ध्यान किया।
प्रान की श्रेणी इतनी प्रलंब हो गई कि भगवान् उसे तोड़ नहीं पाए । वे ध्यान पदमी श्रम में सर्वतोभद्र प्रतिमा की साधना में लग गए। चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं, अध्यं और अधः-इन दसों दिशाओं मे एक-एक दिन-रात तक ध्यान रोना
भावान ने कुल मिलाकर मोलह दिन-रात तक निरंतर ध्यान-प्रतिमा की
१. भार, १५; आवागमणि, १० ३००, ३०१ ।
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६८; आरमाणि, भाग, १० ३०१ ।