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क्रान्ति का सिंहनाद होता तो धर्म सम्प्रदाय से मुक्त हो जाता। पर इस दुनिया में ऐसा नहीं होता। धर्म दीप की लौ है तो सम्प्रदाय उसका पात्र । धर्म फल का सार है तो सम्प्रदाय उसका छिलका । धर्म चैतन्य है तो सम्प्रदाय उसको व्यक्त करने वाली भाषा।
सम्प्रदाय जव आवरण बनकर धर्म पर छा जाता है, तव पात्र, छिलके और भापा का मूल्य लो, सार और ज्ञान से अधिक हो जाता है। भगवान् के युग में कुछ ऐसा ही चल रहा था । सम्प्रदाय धर्म की आत्मा को कचोट रहे थे। धर्म की ज्योति सम्प्रदाय की राख से ढकी जा रही थी। उस समय भगवान् ने धर्म को सम्प्रदाय की प्रतिवद्धता से मुक्त कर उसके व्यापक रूप को मान्यता दी।
गौतम ने पूछा-'भंते ! शाश्वत धर्म क्या है ?' भगवान् ने कहा-'अहिंसा शाश्वत धर्म है।'
अतीत में जो ज्ञानी हुए हैं, भविष्य में जो होंगे। अहिंसा उन सवका आधार है,
प्राणियों के लिए जैसे पृथ्वी ।२ 'भंते ! कुछ दार्शनिक कहते हैं हमारे सम्प्रदाय में ही धर्म है, उससे बाहर नहीं है । क्या यह सही है ?'
गौतम ! मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगीयह सम्प्रदाय और मुक्ति का अनुबन्ध साम्प्रदायिक उन्माद है। इस उन्माद से उन्मत्त व्यक्ति दूसरों को उन्माद ही दे सकता है, धर्म नहीं दे सकता।"
भंते ! कोई व्यक्ति श्रमण-धर्म का अनुयायी होकर ही धार्मिक हो सकता है, क्या यह मानना सही नहीं है ?' .
'गौतम ! नाम और रूप के साथ धर्म की व्याप्ति नहीं है। उसकी व्याप्ति अध्यात्म के साथ है। इसलिए यह मानना सत्य की सीमा में होगा कि कोई व्यक्ति अध्यात्म का अनुयायी होकर ही धार्मिक हो सकता है।'
१. मायारो, ४११,२:
सव्ये पाणा, सव्वे भूता, सम्वे जीवा, सव्वे सता हंतव्वा "एस धम्मे सुदे, णिइए,
सासए"। २. सूपगहो, १।११।३६ :
जेय बुला लइक्कंता, जे य बुदा बणागया।
संतो तेसिं पट्टाणं, भूयाणं जगई जहा ।। ३. सूपगगे, १११७३ :
सए सए उवट्ठाणे, सिलिमेव पवनहा। बधो वि होति यसपती, सबकामसमप्पिए।