________________
६४
श्रमण महावीर
३. भगवान् वैशाली से विहार कर वाणिज्यग्राम जा रहे थे। बीच में गंडकी नदी बह रही थी। भगवान् तट पर आकर खड़े हो गए। एक नौका आई। किनारे पर लग गई। यात्री चढ़ने लगे। भगवान् भी उसमें चढ़ गए। नौका चली। वह नदी पार कर तट पर पहुंच गई। यात्री उतरने लगे। भगवान् भी उतरे। नाविक सब लोगों से उतराई लेने लगे। एक नाविक भगवान् के पास आया और उसने उतराई मांगी। भगवान् के पास कुछ नहीं था, वे क्या देते ? उसने भगवान् को रोक लिया। यात्री अपनी-अपनी दिशा में चले गए। भगवान् वहीं खड़े रहे।
कुछ समय बीता। नदी में हलचल-सी हो गई। देखते-देखते नौकाओं का काफिला आ पहुंचा । सैनिक उतरे। उनके मुखिया ने भगवान् को देखा। वह तुरंत दौड़ा। भगवान के पास आ, नमस्कार कर बोला, 'भंते ! मैं संखराज का भानजा हूं। मेरा नाम चित्त है। मैं संखराज के साथ आपके दर्शन कर चुका हूं। अभी मैं नौसैनिकों को साथ ले दौत्य कार्य के लिए जा रहा हूं । भंते ! आप धूप में क्यों खड़े हैं ?'
'भूल का प्रायश्चित्त कर रहा हूं।' 'भूल कैसी ?'
'मैंने गंडकी नदी नौका से पार की। नौका पर चढ़ते समय मुझे नाविकों की अनुमति लेनी चाहिए थी, वह नहीं ली।'
'इसमें भूल क्या है, सब लोग चढ़ते ही हैं।'
'वे लोग चढ़ते हैं, जो उतराई दे पाते हैं। मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है और ये उतराई मांग रहे हैं। इसलिए मुझे अनुमति लिये बिना नहीं चढ़ना चाहिए
था।'
चित्त ने सैनिक-भावमुद्रा में नाविकों की ओर देखा । वे कांप उठे। भगवान् ने करुणा प्रवाहित करते हुए कहा, 'चित्त ! इन्हें भयभीत मत करो। इनका कोई दोष नहीं है । यह मेरा ही प्रमाद है।'
भगवान् की बात सुन चित्त शान्त हो गया। उसने नाविकों को संतुष्ट कर दिया। भगवान का परिचय मिलने पर उन्हें गहरा अनूताप हआ। भगवान् की करुणा देख वे हर्पित हो उठे । भगवान्, चित्त और नाविक-सब अपनी-अपनी दिशा में चले गए।
इस घटना ने भगवान् के सामने एक सूत्र प्रस्तुत कर दिया-'अपरिग्रही व्यक्ति दूसरे की वस्तु का उपयोग उसकी अनुमति लिए विना न करे।'
१. माधना का दसवां वर्ष। २. आवश्यक नि, पूर्वभाग, पृ० २६६ ।