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श्रमण महावीर
इसलिए वह दूसरों को अपना शत्रु बना लेता है। उसका मान शान्त नहीं है, इसलिए वह अपने को बड़ा और दूसरों को छोटा मानता है। उसकी माया उपशान्त नहीं है, इसलिए वह दूसरों के साथ प्रवंचनापूर्ण व्यवहार करता है। उसका लोभ उपशान्त नहीं है, इसलिए वह स्वार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों के स्वार्थों का विघटन करता है।
जिस समाज में शत्रुता, उच्च-नीच की मनोवृत्ति, प्रवंचनापूर्ण व्यवहार और दूसरों के स्वार्थों का विघटन चलता है, वह स्वयं-शासित नहीं हो सकता।
जनतंत्र शासन-तंत्र में अहिंसा का प्रयोग है। विस्तार आत्मानुशासन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दिशा में होता है। जनतंत्र के नागरिक अहिंसानिष्ठ नहीं होते, उसका अस्तित्व कभी विश्वसनीय नहीं होता। __अहिंसा का अर्थ है-अपने भीतर छिपी हुई पूर्णता में विश्वास और अपने ही जैसे दूसरे व्यक्तियों के भीतर छिपी हुई पूर्णता में विश्वास ।
हिंसा निरंतर अपूर्णता की खोज में चलती है, जबकि अहिंसा की खोज पूर्णता की दिशा में होती है। राग और द्वेष की चिता में जलने वाला कोई भी आदमी पूर्ण नहीं होता। पर उस चिता को उपशांत कर देने वाला मुमुक्षु पूर्णता की दिशा में प्रस्थान कर देता है। महावीर ने ऐसे मुमुक्षुओं के लिए ही संघ का संगठन किया।
भगवान ने आत्म-नियंत्रण, अनुशासन और व्यवस्था में संतुलन स्थापित किया। मुक्ति की साधना में आत्म-नियंत्रण अनिवार्य है। व्यक्तिगत रुचि, संस्कार और योग्यता की तरतमता में अनुशासन भी आवश्यक है। आत्म-साधना के क्षेत्र में आत्म-नियंत्रण विहीन अनुशासन प्रवंचना है। अनुशासन के अभाव में आत्मनियंत्रण कहीं-कहीं असहाय जैसा हो जाता है। व्यवस्था इन दोनों से फलित होती है । भगवान् ने व्यवस्था की दृष्टि से अपने गणों के नेतृत्व को सात इकाइयों में बांट दिया, जैसे१. आचार्य
५. गणी २. उपाध्याय
६. गणधर ३. स्थविर
७. गणावच्छेदक ४. प्रवर्तक
ये शिक्षा, साधना, सेवा, धर्म-प्रचार, उपकरण, विहार आदि आवश्यक कार्यों की व्यवस्था करते थे । गण के नेतृत्व का विकास एक ही दिन में नहीं हुआ । जैसेजैसे गणों का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे व्यवस्था की सुसंपन्नता के लिए नेतृत्व की दिशाएं विकसित होती गई। ___यह आश्चर्य की बात है कि संघीय नेतृत्व का इतना विकास अन्य किसी धर्मपरम्परा में नहीं मिलता। इस व्यवस्था का आधार था भगवान् महावीर का अहिंसा, स्वतंत्रता और सापेक्षता का दृष्टिकोण । इसीलिए भगवान् ने आत्मानुशासन