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श्रमण महावीर
को प्राण-समर्पण की तैयारी रखनी ही होती। भगवान महावीर ने अभय और जीवन-मृत्यु में समत्व की सुदृढ़ अनुभूति वाले अनगिन मुनि तैयार कर दिए। वे जातिवाद के अभेद्य दुर्गों में जाते और उद्देश्य में सफल हो जाते। २. साधुत्व : वेश और परिवेश
वह युग धर्म की प्रधानता का युग था। साधु बनने का बहुत महत्त्व था। श्रमण साधु बनने पर बहुत बल देते थे। इसका प्रभाव वैदिक परम्परा पर भी पड़ा। उसमें भी संन्यास को सर्वोपरि स्थान मिल गया।
अनेक परम्पराओं में हजारों-हजारों साधु थे। समाज में जिसका मूल्य होता है, वह आकर्षण का केन्द्र बन जाता है । साधुत्व जनता के आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बन गया था। किन्तु साधुत्व कोई वाल-लीला नहीं है। वह इन्द्रिय, मन और वृत्तियों के विजय की यात्रा है । इस यात्रा में वही सफल हो सकता है जो दृढ़संकल्प और आत्मलक्षी दृष्टि का धनी होता है।
भगवान् महावीर ने देखा बहुत सारे श्रमण और संन्यासी साधु के वेश में गृहस्थ का जीवन जी रहे हैं। न उनमें ज्ञान की प्यास है, न सत्य-शोध की मनोवृत्ति, न आत्मोपलब्धि का प्रयत्न और न आन्तरिक अनुभूति की तड़प । ये साधु कैसे हो सकते हैं ? भगवान् साधु-संस्था की दुर्बलताओं पर टीका करने लगे। भगवान् ने कहा
'सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता। वल्कल चीवर पहनने से कोई तापस नहीं होता। श्रमण होता है समता से। ब्राह्मण होता है ब्रह्मचर्य से। मुनि होता है ज्ञान से। तापस होता है तपस्या से।"
'जैसे पोली मुट्ठी और मुद्रा-शून्य खोटा सिक्का मूल्यहीन होता है, वैसे ही व्रतहीन साधु मूल्यहीन होता है । वैडूर्य मणि की भांति चमकने वाला कांच जानकार
१. उत्तरज्झयणाणि, २०२६,३० :
न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रण्ण वासेणं, कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ॥