________________
प्रमादवस हुवे दूसरी कीताबों की माफीक जब मगावें गे तब ही मील जावें गे इस विश्वास पर निरास हो बैठे थे. उन महाशयो के मांगणी के पत्रों से हमारे तारो के फेल तंग हो गये थे, पत्रपेटी भर गइ थी उन ज्ञानाभिलाषीयों के लिये शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ द्वितीय तृतीयावृति श्राप लोगों की सेवामें भेज दी गई है इस समय यह भाग ६-७-८-८-१० वा पहले की निष्पत् बहुत कुच्छ सुधारा के साथ तैयार करवा के श्राप साहिबों के कर कमलो मे उपस्थित कर हमारे जीवन को कृतार्थ समजते है । यह ही ईन कीताबों का महत्त्व हैं । विशेष आप इन सब भागों को आद्योपान्त पढ़ लिजीये. ताके आपको रोशन होगा की यह एक अपूर्व ज्ञानरत्न है ।
पाठकों ! ईन शीघ्रबोधके भागों में कथा काहानीयों नही है इन में है जैन सिद्धान्तों का खास तत्त्व जैनो के मूल अंगोपांग सूत्रों का हिन्दी भाषाढाग संक्षिप्त सार-तरुजमा रुपसे वतलाया गया है जैसे रत्नाभिलाषी मनुष्य समुद्र में प्रवेश करते समय नौका का सादर स्वीकार करता है इसी माफीक जैन सिद्धान्त रुपी समुद्रसें तत्त्वज्ञान रुपी रत्नाभिलाषीयों को शीघ्रबोध रुपी नौका का सादर स्वीकार करना चाहिये । कारण विगर नौका समुद्र से रत्न प्राप्त करना मुश्किल है इसी माफीक विगर शीघ्रबोध जैन सिद्धान्त रुपी समुद्र से तत्त्वज्ञान रुपी रत्न प्राप्त होना असंभव है।
सज्जनों ! जीन सूत्रों का नाम मात्र श्रवण करना दुर्लभ था वह सूत्र आज साफ हिन्दी भाषा में आपके कर कमलों में उपस्थिन