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वास में रहकर पाँच-पाँच प्रहर तक सतत आगमाध्ययन करने का शास्त्रीय विधान है।
आगमिक ज्ञान से परिणत बने हुए मुनियों की चित्त-वृत्ति, अत्यन्त निर्मल एवं स्थिर होती जाती है, जिससे वे परमात्मा एवं आत्मा के ध्यान में मग्न होते हैं और ध्यान-मग्न मुनि “समता" प्राप्त करते हैं।
ध्यानाध्ययनाभिरतः प्रथमं पश्चात् तु भवति तन्मयता । सूक्ष्मार्थालोचनया संवेगः स्पर्शयोगश्च ।।
(षोडशक) "संयम अंगीकार करने वाले साधु की सर्वप्रथम शास्त्राध्ययन और ध्यानयोग में निरन्तर प्रवृत्ति होती है; तत्पश्चात् इन दोनों में तन्मयता हो जाती है, तथा तत्त्वार्थ के सूक्ष्म चिन्तन से तीव्र संवेग एवं स्पर्श-योग भी प्रकट होता है।"
इस प्रकार "सम परिणाम" वाली सामायिक में शास्त्र योग (वचनअनुष्ठान) और ध्यानयोग की प्रधानता होती है। क्योंकि शास्त्राध्ययन अथवा ध्यानाभ्यास के बिना तात्विक समता प्रकट नहीं हो सकती ।
अध्यात्म एवं योगशास्त्रों के अध्ययन से समस्त जीवों के साथ समानता एवं आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ज्ञान तथा उसमें तन्मय होने की कला ज्ञात होती है।
___ आगमिक ज्ञान से द्रव्यानुयोग आदि की सूक्ष्म तत्व दृष्टि प्राप्त होने पर धर्म-ध्यान एवं शुक्लध्यान का सामर्थ्य प्राप्त होता है। स्याद्वाद एवं कर्मवाद के अध्ययन-मनन से समस्त दर्शनों एवं समस्त जीवों के प्रति समदृष्टि एवं संसार की अनेक विचित्रताओं के मूलभूत कारणों का ज्ञान होने पर सत्यदृष्टि प्राप्त होती है। तुला के दोनों पलड़ों की तरह सर्वत्र समभाव प्रकट करने के लिये सत्शास्त्रों का अभ्यास एवं ध्यान का सतत सेवन करना आवश्यक है।
तुल्य परिणाम रूप सम सामायिक के लक्षण बताते हए शास्त्रकार महर्षियों का कथन है कि-"समस्य रागद्वषान्तरालवर्तितया मध्यस्थस्य सतः आयः (सम्यग्दर्शनादि लक्षण) इति सामायः तदेव सामायिकम्"।
राग-द्वेष के प्रसंगों में भी राग-द्वोष के मध्य रहने से अर्थात् मध्यस्थ होने से सम अर्थात् सम्यदर्शन आदि गणों का लाभ होता है । वह “सम सामायिक" है।
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