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ज्ञानदान के लिए ज्ञान-सम्पत्ति चाहिये, सुपात्रदान के लिये धनसम्पत्ति चाहिये, इस तरह अभयदान देने वाले व्यक्ति के पास मैत्री, क्षमा एवं विरति रूपी भाव-सम्पत्ति होनी आवश्यक है। समता अभयदान का प्रधान फल है।
____ “साम" सामायिक में मैत्री और करुणा भावना की प्रधानता होती है। साम सामायिक धारण करने वाले साधक में मैत्री और करुणा भावना के निर्मल स्रोत सदा निरन्तर प्रवाहित होते ही रहते हैं।
"कोई भी जीव पाप न करे; कोई भी जीव दुःखी न हो; समस्त जीव कर्म मुक्त बनें"-ऐसी विशुद्ध भावना के बल से स्वयं साधक भी ऐसा जीवन व्यतीत करने का प्रयास करता है, जिससे कोई भी जीवात्मा किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक वेदना प्राप्त न करे।
मैत्री भाव की मधुरता का आनन्द लेने वाले साधक को “साम सामायिक" अवश्य होती है । साम सामायिक मुख्यतः सम्यक्त्व सामायिक को सूचित करती है। सम्यग्दृष्टि एवं देश-विरति श्रावक भी उसका अधिकारी होता है।
साम सामायिक के अभ्यास से ही तुल्य परिणाम रूप “सम सामायिक" की प्राप्ति एवं सिद्धि होती है।
समता सर्वभूतेषु संयमः शुभ भावना ।
आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥१॥ "समस्त जीवों के प्रति समता, मन, वचन और काया के पापव्यापार का त्याग रूप संयम; मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं मध्यस्थ आदि भावना और आर्त एवं रोद्रध्यान का त्याग सामायिक व्रत है।"
यह श्लोक सामायिक का रहस्य स्पष्ट करता है।
सामायिक व्रत में अभयदान, मैत्री, क्षमा, संयम आदि भाव-सम्पत्ति का भी समावेश है, अर्थात् ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं ।
समस्त जीवों के प्रति मैत्री रखने से संयम सुलभ होता है; मन, वचन और कायायोग की अशुभ प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं, तथा इन्द्रियों के विषयों एवं क्रोधादि कषायों पर नियन्त्रण होता है और उससे ही हिंसा आदि आस्रवों का निरोध होता है ।
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