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विशेष - यहाँ समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव को "समता" कहा है और वह आत्मपरिणामस्वरूप है, जिसका ध्यान छद्मस्थ को नहीं आ सकता । फिर भी उन परिणामों को हिंसा आदि पाप आस्रव के त्याग से और अहिंसा आदि सदनुष्ठान के सेवन से जाना जा सकता है ।
"योगविशिका" में अहिंसा स्वरूप अभय का लक्षण बताया गया है कि - " देह के द्वारा समस्त जीवों को सम्पूर्णतः समस्त प्रकार से अभय करना सर्वश्रेष्ठ अभयदान है ।" यह दान सर्वोत्तम होने से निम्न स्तर के मनुष्य इसे नहीं कर सकते । अभयदान दाता के हृदय में समभाव उत्पन्न करता है ।
यह दानदाता यदि गुरुकुलवासी हो और आगम-अर्थ का ज्ञाता हो तो ही उसका दान सर्वोत्तम सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं क्योंकि अहिंसा के पूर्णतः पालन में नयसापेक्ष " षट् जीवनिकाय” का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । कहा भी है- "पढमं नाणं तओ दया ।" - प्रथम ज्ञान और तत्पश्चात् अहिंसा | जिनवचन स्याद्वादगर्भित वचन हैं, अतः नयों का यथार्थ ज्ञाता एवं आगमों के अनुरूप जीवन यापन करने वाला मुनि ही अहिंसा का पूर्ण पालन कर सकता है ।
इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को कदापि किसी प्रकार का भय उत्पन्न न हो, इस प्रकार का व्यवहार करने वाला व्यक्ति ही " अभय दान" का दाता माना जाता है । यदि सर्वथा हिंसा से विरत होने की भावना वाला हो तो श्रावक को भी अंशतः देश से ऐसा अभयदान हो सकता है । इस भावना के बिना तो दान " देकर पुनः ले लेने" जैसा माना जाता है । उन्हें भय उत्पन्न हो ऐसा व्यवहार पुनः करना तो देकर छीन लेने के समान है ।
ज्ञानदान अथवा अभयदान हो, परन्तु वे क्षमा एवं विरति से युक्त होने चाहिए, अन्यथा वे तिरस्कार के पात्र होते हैं, हास्यास्पद होते हैं, सत्कार एवं गौरव के पात्र कदापि नहीं होते । अहिंसा (अभय ) को पूर्णतः सफल करने के लिये, शोभापात्र बनाने के लिए मैत्री एवं क्षमा को अग्र स्थान देना चाहिये । ज्ञान के बिना ज्ञानदान नहीं हो सकता, धन आदि सामग्री के बिना सुपात्रदान नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार से मैत्री के बिना वास्तविक " अभयदान" भी दिया नहीं जा सकता ।
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