________________
ज्यों-ज्यों संयम साधना उत्कृष्ट बनती है,त्यों-त्यों मैत्री प्रमोद आदि भावनायें भी विशुद्ध होती जाती हैं और उससे आर्तरोद्रध्यान का सर्वथा परित्याग होने पर चित्त धर्मध्यान एवं शुक्ल-ध्यान में लीन होता है तथा धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है।
इस प्रकार समस्त जीवों के प्रति मैत्री संयम की साधक होती है। संयम मैत्री आदि भावनाओं को सुविशुद्ध करता है और विशुद्ध भावनायें अशुद्ध ध्यान का सर्वथा निरोध करके शुभ ध्यान उत्पन्न करती हैं ।
___ सामायिक व्रत में मैत्री आदि भावना से जिनोक्त तत्त्व का चिन्तन होता है तब वह "अध्यात्म योग" कहलाता है और उस शुभ भावना का सतत अभ्यास "भावनायोग" है और उसके फलस्वरूप चित्त की शुद्धता में वृद्धि होने पर "ध्यानयोग" का प्रारम्भ होता है। इसके अनुसार “साम सामायिक" में तीन योग घटित हो सकते हैं। उपर्युक्त श्लोक में इन तीनों योगों का निर्देश है।
“सर्वभूतेषु समता" -समस्त जीवों के प्रति सामान्य मैत्री रखकर संयम का पालन करना "अध्यात्म योग" है। "शुभ भावना" "भावनायोग" को और "आर्त्तरौद्रपरित्यागः" "ध्यानयोग" को सूचित करता है । इन अध्यात्म आदि तीनों योगों का फल "समतायोग" है । (२) सम सामायिक का स्वरूप
राग-द्वेष के प्रसंगों में भी चित्त का सन्तुलन रखकर मध्यस्थ रहना, अर्थात् सर्वत्र समान व्यवहार करना उसे "सम" कहते हैं। सम, प्रशम, उपशम, समता, शान्ति आदि इसके ही पर्यायवाची नाम हैं। इसकी प्राप्ति के लिये विधिपूर्वक सत्शास्त्रों का अध्ययन करना आवश्यक है।
__ कर्माधीन जीव को इस संसार में प्रायः ऐसे अनेक प्रसंगों में से गुजरना पड़ता है जिसमें राग-द्वेष की वृत्तियाँ उत्पन्न हुए बिना नहीं रहतीं; परन्तु शास्त्रों के अध्ययन, मनन एवं परिशीलन से चित्त अभ्यस्त बना हआ हो तो जड़ एवं चेतन पदार्थों के विविध स्वरूप एवं स्वभाव आदि का ज्ञान होने से इष्ट-अनिष्ट पदार्थों अथवा संयोग-वियोग के प्रसंगों में चित्त का सन्तुलन बनाये रख सकते हैं, मध्यस्थभाव अपना सकते हैं।
संयम-जीवन में शास्त्राध्ययन की अनिवार्यता है। शास्त्राध्ययन के लिए सद्गुरु की सेवा (उपासना) आवश्यक है। इस कारण ही गुरुकुल
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org