Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 11
________________ प्रस्तावना बाद जो अनुबद्ध केवली और श्रुनकेवली हुए उन तक तो यह अग पूर्वसम्बन्धी ज्ञान व्यवस्थित चला श्राया, किन्तु इसके बाद इसकी यथावत् परम्परा न चल सकी। वीरे-धीरे लोग इसे भूलने लगे और इस प्रकार मूल साहित्यका बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। पर हम मूलभूत जिस कर्म साहित्यका उल्लेख कर आये हैं। उममेंसे कर्मप्रवादका तो लोप हो ही गया। केवल अप्रायणीय पूर्व और ज्ञानप्रवाद पूर्वका कुछ अंश बच रहा । तव श्रुनधारक ऋपियोंको यह चिन्ता हुई कि पूर्व साहित्यका जो भी हिस्पा शेष है उसका संकलन हो जाना चाहिये । इस चिन्ताका पता उस कथासे लगता है जो धवला प्रथम पुस्तकमें निबद्ध है। श्वेताम्बा परम्परामें प्रचलित अंग साहित्यके संकलनके लिये जिन तीन वाचनाओंका उल्लेख मिलता है वे मी इसी बातकी घोतक हैं। वर्तमान मूल कर्मसाहित्य और उसकी सकलनाका आधारअबतक जो भी प्रमाण मिले हैं उनके माधारसे यह कहा जा सकता है कि कर्म साहित्य व जीव साहित्यके सकलनमें श्रुतधर ऋपियोंको एक चिन्ता ही विशेष सहायक हुई थी। वर्तमान में दानों परम्पराओं में जो भी कर्मविषयक मूल साहित्य उपलब्ध होता है वह इमीका फल है। अग्रायणीय पूर्वकी पांचवीं वस्तुके चौथे प्रामृनके श्राधारमे पटखण्डागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थोंका सकलन हुआ था और ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तु के तीसरे प्रामृतके आधारसे कपायप्राभृतका सकलन हुभा था। इनमेंसे कर्म प्रकृति, यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामें माना जाता है कपायप्राभूत और पटखण्डागम ये दो दिगम्बर परम्परा माने जाते हैं। तथा कुछ पाठ भेदके साथ शतक और सप्ततिका ये दो अन्य दोनों परम्पराओं में माने जाते हैं। __ जैसे इस साहित्यको पूर्व साहित्यका उत्तराधिकार प्राप्त है ।वैसे ही यह शेप कर्म साहित्यका आदि श्रोत भी है। भागे टाका, टिम्पनी

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