Book Title: Samipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भविष्यत् पर्व अध्याय ६८ में कश्यप द्वारा परमपुरुष परमात्मा विष्णु का स्तवन किया गया है, जिसे वेदोक्त स्तोत्रपाठ कहा गया है । यह स्तवन गद्य में है जिसमें विष्णु के अनेक विशेषणों, कृत्यों तथा स्वरूपात्मक अवधारणाओं का संज्ञान होता है। इस प्रकरण का प्रधान कथ्य है कि वेद विष्णु का हजारों प्रकार से वर्णन करते हैं । विष्णु देवों के सृष्टा, नित्यसिद्ध, गार्हपत्यादि त्रिविध अग्नियों के आवर्तक वृष्णिज (श्रीकृष्ण) अजन्मा तथा सनातन पुरुष हैं । वे विश्वरूप, अक्षर, सत्याक्षर, हंस, महाहंस, अग्र, अग्रज तथा पद्मनाभ हैं । वे सहस्रबाहु, सहस्रमूर्ति, सहस्रास्य, सहस्राक्ष, सहस्रभुज तथा सहस्रात्मा हैं । विष्णु ही शतधार तथा सहस्रधार सोम हैं । वे ही धुलोक, पृथ्वी, पूषा, मातरिश्वा, धर्म, इन्द्र, होता, हन्ता, जल, विश्ववाक्, (यज्ञ में प्रयुक्त) सुक्र, ऋत्विज्, ईज्य तथा ईड्य हैं । वे मोक्ष, योग, गुह्य, सिद्ध, यज्ञ, सोम, दक्षिणा, दीक्षा तथा सर्वस्व हैं । विष्णु विश्वभोक्ता, विश्वपालक, विश्वम्भर, सात हविर्यज्ञ-संस्थाओं के विशेषज्ञ, सुरासुरगुरु, महादिदेव, नरदेव तथा स्वयंभू आदि हैं । ___ उक्त प्रकरण में 'वेदोक्त' कहने का आशय यह है कि विष्णु के लिए इस स्तुति में जिन नामों का प्रयोग किया गया, वस्तुतः वेद में कथित हैं । इस स्तोत्र की शैली भी अथर्वशीर्ष के नाम से प्रख्यात स्तोत्रों के समान ही हैं। जैसे यह स्तुति विष्णु के विषय में निर्देश करती है - 'धौरसि पृथिव्यसि पूषासि मातरिश्वासि धर्मोऽसि मधवासि' (भ०प०अ०६४-८)। यह शैली अथर्वशीर्ष की है यथा - गणेश अथर्वशीर्ष में गणेश की स्तुति में इस प्रकार की रचना शैली है- त्वं ब्रह्मासि, त्वं रुद्रोऽसि, त्वं शिवोऽसि, आदि । कर्ण भविष्यत्पर्व अध्याय ८० में श्लोक सं० ३७ से ५२ तक भगवान विष्णु की विशेषताओं को बतलाकर श्लोक संख्या ५९ से ८९ तक उनका स्तवन करता है तथा ८१ वें अध्याय में कृष्ण रूप विष्णु की स्तुति करता है । तदनुसार विष्णु सर्वेश्वर हैं। श्री हरि ही सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति के कारण, पालक, कर्ता, हर्ता, जगदीश्वर, सबके आदिपुरुष उद्गमस्थान हैं । श्री हरि ही समस्त जगत् के कर्ता, पुराणपुरुष, प्रभुओं के प्रभु और सत्त्व स्वरूप हैं, वे आदि देव, वरदायक तथा वरेण्य हैं । उनकी कृपाप्रसाद से ही प्राणियों, गन्धर्वो और बड़े-बड़े नागों के समुदाय से युक्त जगत् वर्तमान रूप में प्रकट हुआ है । वे संसार की उत्पत्ति के कारणभूत तत्त्व हैं । विष्णु ही संसार के सृष्टा, पालक तथा संहारक हैं। वे आदिपुरुष, पुरातन देवता, प्रभावशाली, अविनाशी, विश्वस्वरूप तथा भु भगवान् विष्णु ने आदिकाल में मुनियों द्वारा वन्दित वराह रूप होकर महान् मेघ के समान गर्जना करते हुए अपनी दाढ़ के अग्रभाग पर पृथ्वी के मूल भाग को स्थापित कर उसे जल के ऊपर उठाया था, जो पुराण पुरुषो । पुरुषोत्तम प्रभु भी हरि समस्त जगत के कर्ता, साक्षी यज्ञ रूप एवं यज्ञ के अधिपति हैं। विष्णु के ही अनेक रूप हैं जिसे कोई इन्द्र कहता है तो कोई पुराणपुरुष, कोई उन्हें अद्वैत सत्ता से युक्त परमेश्वर कहता है तो कोई उन्हें सर्वेश्वर । घण्टाकर्ण भगवान् विष्णु से स्वयं की रक्षा की प्रार्थना करते हुए कहता है कि 'हे हरि ! आप याचकों के कल्पवृक्ष हैं, सदा सबके दाता हैं । देवेश्वर ! जहाँ-जहाँ मेरा जन्म हो, वहाँ-वहाँ आप मेरे हृदय में विराजमान रहें । जल मेरी रक्षा करें, आप सूर्य के समान तेजस्वी हैं, आपको नमस्कार है ।' 'देव जनार्दन ! देव जनार्दन ! आप मेरे मन की बार-बार रक्षा करें, मेरे मन में मलिनता न रहे ।' २० सामीप्य:ोटो. २००६-भार्थ, २००७ For Private and Personal Use Only

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